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________________ २२८ ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । ज्ञानके, साथ साथ ही अतींद्रिय स्वाभाविक शुद्धे सुखका अनुभव होता है। इस कारण यहां अभेद नयसे ज्ञानको ही सुख कहा है। जहां ज्ञान के कारण खेद व चिंता व किंचित भी अशुद्धता होती है वहां निराकुलता नहीं पैदा होती है । केवलज्ञान ऐसा उच्चतम व उत्कृष्ट ज्ञान है कि इसके प्रकाशमें आकुलताका अंश भी नहीं हो सक्ता है, क्योंकि एक तो यह पराधीन नहीं है अपने से ही प्रगट हुआ है। दूसरे यह पूर्ण है क्योंकि सर्व ज्ञानावरणका क्षय हो गया है। तीसरे यह सर्व ज्ञेयोंको एक समय में जाननेवाला है, अब कोई भी जानने योग्य पर्याय ज्ञानसे बाहर नहीं रहजाती है । चौथे यह शुद्ध है- स्पष्टपने झल्कनेवाला है । पांचवे यह क्रम क्रमसे न जानकर सर्वको एक समय में एक साथ जानता है । ज्ञान सूर्य्यके प्रकाशमें कोई भी अंश अज्ञानका नहीं रहसक्ता है । इस कारण मात्र ज्ञान ही स्वयं निराकुल है, खेद रहित हैं, बाधा रहित है, और यहां तो ज्ञानगुणसे भिन्न एक सुख गुण और भी कलोल कर रहा है । इसलिये अभेद नय ज्ञानको सुख कहा है क्योंकि जिन आत्मप्रदेशों में ज्ञान है वहीं, सुख गुण है । आत्मा अखंड एक है। वही भेदनयसे ज्ञानमय, सुखमय, वीर्य्यमय, चारित्रमय आदि अनेक रूप है । प्रयोजन यह है कि शुद्ध अतीन्द्रिय सुखका लाभ केवलज्ञानके होनेपर नियमसे होता है ऐसा जानकर इस ज्ञानकी प्रगटता के लिये शुद्ध आत्माका अनुभव परोक्ष ज्ञानके द्वारा भी सदा करने योग्य है. " क्योंकि यही स्वानुभवरूपी अग्नि ही कर्मोंके आवरणको दग्व करती है ॥५९॥ I
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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