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________________ २१६ ] श्रीप्रवचनसार,भाषाटीका । ग्रहण करके (आणदि) जानता है अर्थात अपने आवरणके क्षयोपसमके योग्य कुछ भी स्थूल पदार्थको जानता है (वा तण्ण जाणादि ) तथा उस मूर्तीक पदार्थको नहीं भो जानता है, विशेष क्षयोपशम न होनेसे सुक्ष्म या दूरवर्ती, व झालसे प्रच्छन्न व भूत भावी कालके बहुतसे मूर्तीक पदार्थों को नहीं जानता है। यहां यह भावार्थ है । इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहारसे प्रत्यक्ष कहा. माता है तथापि निश्चयसे केवलज्ञानकी अपेक्षासे परोक्ष ही है। परोक्ष होनेसे जितने अंश वह सुक्ष्म पदार्थको नहीं जानता है उतने अंश नाननेकी इच्छा होते हुए न जान सकनेसे चित्तको, खेदका कारण होता है-खेद ही दुःख है इसलिये दुःखोंको पैदा करनेसे इन्दियज्ञान त्यागने योग्य है। भावार्थ-यहां इस गाथामें आचार्य ने इन्द्रिय तथा मनके सम्बन्धसे होनेवाले सर्वही क्षयोपशमरूप ज्ञानको त्यागने योग्य बताया है क्योंकि यह क्षयोपशम ज्ञान असमर्थ है तथा दुःख व आकुलताका कारण है। आत्माका स्वभाव अमूर्जीक है तथा स्वाभाविक व अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखका भंडार है । जिससे मात्मा सर्वज्ञ व पूर्णानन्दी सदा रहता है। ऐसा स्वभाव होनेपर भी मानादि कालसे इस स्वभाव पर कर्मोका आवरण पड़ा हुमा है। जिससे आत्माका एक एक प्रदेश अनंत कर्म वर्गणाओंसे आच्छादित है इस कारण मूर्तिमानसा हो रहा है। और उन्हीं कोके उदयके कारण यह मूर्तीक शरीरको धारण करता है और उसमें अपने २ नाम कर्मके उदयके अनुसार कम व अधिक इंद्रिय तथा नो इन्द्रियोंको बनाता है और उनके द्वारा ज्ञानावरणीय
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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