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________________ ... श्रीप्रवचनसार भाषाटीका [२१५:, . उत्थानिका-आगे त्यागने योग्य इंद्रिय सुखका कारण .. होनेसे तथा अल्प विषयके जाननेकी शक्ति होनेसे इंद्रियज्ञान . त्यागने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैंजीवो सयं अमुत्तो, मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगिणिहत्ता जोग्गं, जाणदि वा तण्ण जाणादि ॥ . जीवः त्वयममूर्ती मूर्तिमतस्तेन मुर्तेन भूतम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ॥५५॥ सामान्यार्थ-यह जीव स्वयं स्वभावसे अमूर्तिक है परंतु कर्मबंधके कारण मूर्तीकसा होता हुभा मूर्तीक शरीरमें प्राप्त होकर उसमें मूर्तीक इद्रियोंके द्वारा मूर्तीक द्रव्यको अपने योग्य अवग्रह आदिके द्वारा क्रमसे ग्रहण करके जानता है अथवा मूर्तीकको भी वहुतसा नहीं जानता है। __अन्वय सहित विशेषार्थ-(जीवो सयं अमुत्तो) जीव स्वयं अमूर्तीक है अर्थात शक्तिरूपसे व शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे अमूर्तीक अतीन्द्रिय ज्ञान और सुखमई स्वभावको रखता है तथा अनादिकालसे कर्म बंधके कारणसे व्यवहारमें (मुत्तिगदो) मूर्तीक शरीरमें प्राप्त है व मूर्तिमान शरीरों द्वारा मूर्तीक. . सा होकर परिणमन करता है (तेण मुत्तिणा) उस मूर्त शरीरके द्वारा अर्थात् उस मूर्तीक शरीरके आधारमें उत्पन्न जो मूर्तीक द्रव्येद्रिय और भावेंद्रिय उनके आधारसे (जोगं मुत्तं) योग्य गूर्जीक वस्तुको अर्थात स्पर्शादि इंद्रियोंसे ग्रहण योग्य मूर्तीक पदार्थको (ओगिण्डित्ता) अवग्रह आदिसे क्रमक्रमसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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