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________________ श्रीप्रवचनसार भाषार्टीका। [२१७ . कर्मके क्षयोपशमके अनुसार क्रम पूर्वक कुछ स्थूल मूर्तीक द्रव्योंको जानता है । बहुतसे मूर्तीक द्रव्य जो सुक्ष्म व दूरवर्ती हैं उनका ज्ञान नहीं होता है अथवा किसी भी मूर्तीक द्रव्यको किसी समय नहीं जान सका है। जैसे निद्रा व मूर्छित अवस्थामें तथा चक्षु प्रकाशकी सहायता विना नहीं जान सक्ती । अन्य चार इन्द्रियें बिना पदार्थोको स्पर्श किये नहीं जान सक्ती । मन बहुत थोड़े पदार्थीको सोच सक्ता है। क्योंकि इस ज्ञानमें बहुत थोड़ा विषय मालूम होता है इस कारण विशेष जाननेकी आकुलता रहती है. तथा एक दफे जान करके भी कालान्तरमें भूल जाता है। और जान करके भी उनमें राग द्वेष कर लेता है । जाने हुए पदार्थसे मिलना व उसको भोगना चाहता है-उनके वियोगसे कष्ट पाता है । पदार्थका नाश होनाने पर और भी दुःखी होजाता है। इसलिये यह इन्द्रियज्ञान अल्प होकर भी माकुलताका ही कारण है-जहांतक पूर्ण ज्ञान न हो वहां तक पूर्ण निराकुलता नहीं हो सक्ती है। बड़े देवगण पांचों इंद्रियोंके द्वारा एक साथ जाननेकी इच्छा रखते हुए भी क्रमसे एक २ इंद्रियके द्वारा जाननेसे आकुलित रहते हैं। प्रयोजन यह है कि इंद्रियज्ञानके आश्रयसे जो इंद्रियसुख होता है वह भी छूट जाता है । और अधिक तृष्णाको बढ़ाकर खेद पैदा करता है। ____ यद्यपि मति और श्रुततान मूर्त व अमूर्त पदार्थीको आगमादिके आश्रयसे जानते हैं परन्तु उनके बहुत ही कम विषयको व बहुत ही कम पर्यायोंको जानते हैं। अवधि तथा मनःपर्ययज्ञान भी क्षयोपशम ज्ञान हैं, अमूर्तीक शुद्ध ज्ञान नहीं हैं । ये दोनों
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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