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________________ २१४ श्रीप्रवचनसार भापाटीको। . मगोचर पुद्गलके परमाणु तथा उनके अविभाग प्रतिच्छेद आदिको तथा द्रव्यादि चतुष्टयमें तो अति गुप्त पदार्थीको भी प्रत्यक्ष जानता है । द्रव्यमें तो कालाणु आदि गुप्त हैं, क्षेत्रमें अलोकाकाशके प्रदेश, कालमें अतीत, भविष्य व वर्तमान समयकी पर्याय भावमें अविभाग प्रतिच्छेद रूपी षट् प्रकार हानिवृद्धि रूप सूक्ष्म परिणमन प्रच्छन्न हैं। केवलज्ञानीको ये सब ज्ञेय पदार्थ हाथ में खखे हुए स्फटिककी तरह साफ २ दिखते हैं और विना किसी क्रमसे एक काल दिखते हैं जैसा स्वामी समंतभद्रने अपने स्वयम्भू स्तोत्रमें कहा है:वहिरंतरप्युभयथा च करणमविघातिनाथकृत् । नाय युगपदखिलं च सदा, त्वमिदं तलामलकावद्विवेदिय ।।१२८ __भाव यह है कि हे नेमिनाथ भगवान ! आप एक ही समयमें सम्पूर्ण इस जगतको सदा ही इस तरह जानते रहते हो जिप्स तरह हाथकी हथेली पर रक्खा हुआ स्फटिक स्पष्ट २ भीतर वाहर से जाना जाता है-यह महिमा आपके ज्ञानकी इसीलिये है कि आपका ज्ञान मतीन्द्रिय है, उसके लिये इंद्रिय तथा मन दोनों अलग २ या मिल करके भी कुछ कार्यकारी नहीं हैं और नवे होकरके भी ज्ञानमें कुछ विघ्न करते हैं। केवलज्ञानीका उपयोग इन्द्रिय तथा मन द्वारा काम नहीं करता है । आत्मस्थ ही रहता है । ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञानी परमात्माको ही निराकुल आनंद संभव है। ऐसा जान इस शुद्ध स्वाभाविक ज्ञानको उपादेय "रूप मानके इसकी प्राप्तिके कारण शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका इमको निरंतर अभ्यास करना चाहिये। यही तात्पर्य है ॥१४॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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