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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१८३, पर्याय हरएक द्रव्यमें एक समय, एकरूप रहसती हैं। शुद्ध और अशुद्ध दो पर्यायें एक समयमें नहीं रह सक्ती हैं। संसार अवस्थामें मुख्यतासे नीवों में अधिकांश अशुद्ध परिणमन तथा मुक्तावस्था में सर्व जीवोंके शुद्ध परिणमन रहता है। यह जीव आप ही अपने परिणामों में कभी शुभ या अशुभ परिणामवाला होजाता है । इसीसे इसके रागद्वेष मोह भाव होते हैं। जिन भावोंके निमित्तसे यह जीव कोका बंध करता है और फिर माप ही उनके फलको मोक्का है, फिर आप ही शुद्ध परिणमन के अभ्याससे शुद्ध होनाता है । सांख्यकी तरह अपरिणामी माननेसे संसार तथा मोक्ष अवस्था कोई नहीं बन सक्ती है । परिणामी माननेसे ही जीव संसारी रहता तथा संसार अवस्थाको त्यागकर मुक्त होजाता है। .. __ श्री अमृतचंद्र आचार्यने श्रीपुरुषार्थसिन्धुपाय ग्रन्थमें कहा है। .. परिणममाणो नित्यं बानविवरनादिसंवत्या । ' परिणामानां स्वेषां स भवति कर्चा च भोक्ता च ॥१॥ सर्वविवत्तोंत्तीर्ण यदा स चैतन्यमचलमामोति । "भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक्पुरुषार्थसिद्धिमापन्न ॥ ११ - भाव यह है कि अनादि परिपाटीसे ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके निमित्तंसे नित्य ही परिणमन करता हुआ यह नीव अपने ही शुभ अशुभ परिणामोंका' कर्ता तथा भोक्ता हो जाता है। जब यह मात्मा सर्वे आवरणोंसे उतरे हुए शुद्ध निश्चल चैतन्य भावको
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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