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________________ RAMMAA M १८४] श्रमिवचनसार भापाटीका । प्राप्त करता है तब यह भले प्रकार अपने पुरुषार्थकी सिद्धिको प्राप्त होता हुआ इतकृत्य कतार्थ तया सुखी हो जाता है। इस तरह संसारी छद्मयोंके स्वभावका घात हो रहा है ऐसा जानकर शुभोपयोग तथा अशुभोपयोगको त्यागकर शुद्धोप. योग अथवा साम्यभावमें परिणमन करना योग्य है जिससे कि आत्मा केवळज्ञानीकी तरह शुद्ध निर्विकार तथा अनन्ध हो जावे यह नाम है। ____ इस तरह यह बताया कि राग द्वेष मोह बन्धके कारण हैं, ज्ञान बंधका कारण नहीं है इत्यादि कथन करते हुए छठे स्थलमें पांच गाथाएं पूर्ण हुई ।। ४६ ॥ उत्थानिका-आगे कहेंगे कि केवलज्ञान ही सर्वज्ञका स्वरूप है । फिर कहेंगे कि सर्वको जानते हुए एकका ज्ञान होता है तथा एकको मानते हुए सर्वका ज्ञान होता है इस तरह पांच गाथाओं तक व्याख्यान करते हैं। उनमें से प्रथम ही यह निरूपण करते हैं। क्योंकि यहां ज्ञान प्रपंचके व्याख्यानकी मुख्यता है इसलिये उसहीको आगे लेकर फिर कहते हैं कि केवलज्ञान सर्वज्ञ जं तालियनिदर, जाणाद जुगवं रूतदोसब्बं । अत्थ विचित्तविसम, तणाणं खाइयं भणिय ॥४॥ यत्तारकालिकभितरं जानाति युगपत्समन्ततः सर्वम् । अर्थ विचित्रविषमं तत् शानं क्षायिक भणितम् ॥४७॥ सामान्यार्थ-जो सर्वागसे वर्तमानकालकी व उससे भिन्न
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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