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________________ १४२] श्रीमवचनसार भाषाटीका। . धक्का । जड़वत् एक रूप पड़ा रहेगा, सो यह बात द्रव्य के स्वभा. बसे भी विरोधरूप है । आत्मा संसार अवस्थाम, जब उस मास्माको पर्याय या भवस्थाकी अपेक्षा देखा जाये तब वह अशुद्ध कर्म बद्धं, अज्ञानी, अशांत आदि नाना अवस्थारूप, दीखेगा, हां जब मात्र स्वभावकी अपेक्षासे देखें तो केवल शुद्ध रूप दीखेगा। शुद्ध निश्चयनय नैनसिद्धान्तमें द्रव्यके त्रिकाल अबाधित शुद्ध स्वभावकी ओर लक्ष्य दिलाती है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि हरएक संसार पर्याय ही शुद्ध रूप है । जब नीवकी संसार अवस्थाको देखा जाता है तब उस दृष्टिको अशुद्ध 'या व्यवहार दृष्टि या नय कहते हैं। उस दृष्टि से देखते हुए यही दिखता है कि यह जीव अपने शुद्ध स्वभावमें नहीं है । यद्यपि यह स्फटिकमणिके समान स्वभावसे शुद्ध है . तथापि कर्मबंधके कारणसे इसका परिणमन स्फटिकमें लाल,काले,पीले डॉकके सम्बन्धकी तरह नाना रंगका विचित्र झलकता है । जब यह अशुभ या तीव्र कषायके उदयरूपं परिणमन करता है. तब यह अशुभ. परिणामवाला और जब शुभ यो मंद कषायके उदयरूप परिणमन करता है तब शुंभ परिणामवाला स्वयं स्वभावसे अर्थात् अपनी उपादान 'शक्तिसे होजाता है । जैसे फटिकका, निर्मल पाषाण काल डाकसे लाल रंगरूप या काले डाकसे काले रंगरूप परिणमन करता, है वैसे यह परिणमनशील आत्मा तीव्र कषायके निमित्तसे अंशुमरूप तथा मंद कषायके निमित्तसे शुभरूप परिणमन, करमाता है। उस समय जैसे 'फटिकका निर्मल , स्वभाव ; तिरोहितः या. ढक जाता है वैसे, आत्माका शुद्ध स्वभाव तिरोहित होनाता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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