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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका। [.१८१ है। क्योंकि संसारके अभावको ही मोक्ष कहते हैं सो मोक्ष संसारी 'जीवोंके भीतर नहीं दिखलाई पड़ती है इसलिये प्रत्यक्षमें विरोध भाता है। ऐसा भाव है।: ...:.:. . · . "भावार्थ-इस गाथामें प्राचार्य संसारी जीवोंकी और लक्ष्य देते हुए कहते हैं कि केवली भगवानके सिवाय अन्य संसारीनीव शुद्ध केवलज्ञानी नहीं हैं। यहां पर जहांसे · अप्रमत्त अवस्था प्रारम्भ होकर यह जीव क्षपक श्रेणी हारा क्षीण मोह गुंणेस्थान तक आता है उस अवस्थाके जीवोंको भी छोड़ दिया है क्योंकि वे अंतर्मुहूर्त में ही केवली होंगे। तथा उपशम श्रेणीवालों को भी छोड़ दिया है क्योंकि वहां 'बुद्धिपूर्वक जीवोंमें 'शुद्धोपयोग रहता है। प्रमत्त गुणस्थान तक " कषायका- उदयं प्रगट रहता है। इसलिये शुभ या अशुभरूप परिणमन वहांतक संभव है। क्योंकि अधिकांश जीव समूह मिथ्यादृष्टी हैं। इसलिये उनहीकी ओर विशेष कक्ष्य देकर आचार्य कथन करते हैं कि यदि सांख्यके समान संसार अवस्थामें जीवोंको सर्वथा शुद्ध और निर्लेप, मान लोगे तो सर्व संसारी जीव. पूर्ण शुद्ध संदा' रहेंगे सो यह बात प्रत्यक्षमें देखने में नहीं आती है। संसारी जीव कोई अति मल्प कोई अल्प कोई उससे अधिक ज्ञानी व शांत दीखते हैं। मुक्त जीवके समान त्रिकालज्ञ त्रिलोकज्ञ वीतराग तथा आनन्दमई नहीं दिख रहे हैं. तब सर्व व्यवहार में भी जीवोंको शुद्ध और अपरिणामी कैसे माना जासका है ! ? यदि सब शुद्ध माने जावे तब मुक्तिका उपदेश देना ही व्यर्थ हो जायगा। तथा जम संसारी जीव परिणमनशील न होगा वो दुःखी.या मुखी कमी नहीं हो
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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