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________________ 'श्रीप्रवचनसारं भाषाटीका । [ १६५ 'यदि कोई यह माने कि ज्ञान प्रत्येक पदार्थरूप परिणमन करके' अर्थात् उधर अपना विकल्प लेजाकर जानता है तब वह ज्ञान एकके पीछे दूसरे फिर तीसरे फिर चौथे इसतरह क्रमवर्ती जाने से वह सर्व पदार्थों का एक काल ज्ञाता सर्वज्ञ नहीं हो सक्ता । जिनेन्द्र अर्थात् तीर्थकरादिक प्रत्यक्ष ज्ञानियोंने यही बताया है कि पर पदार्थ भोगनेवालेके रागादि विकल्प हैं जहां कर्मोंका उदय है । इसलिये परमें सन्मुख हुआ आत्मा न वर्तमान में निम स्वरूपका अनुभव करता है न आगामी उस स्वानुभवके फलरूप केवलज्ञानको प्राप्त करेगा, परन्तु जो कर्मोदयका भोग छोड़ निन शुद्ध स्वभावमें अपनेसे ही तन्मय हो जायगा वही वर्तमान में निजानन्दका अनुभव करेगा तथा उसीके ही ज्ञानावरणीयका क्षय होकर निर्मल केवलज्ञान उत्पन्न होगा अर्थात् जहां वीतरागता है वहीं कमौकी निर्जरा है तथा जहां सरागता है वहीं कमका बंध है । अर्थात् रागादि ही बंधका कारण है ॥ ४२ ॥ ↓ 1 उत्थानका- आगे निश्चय करते हैं कि अनन्त पदार्थोंको जानते हुए भी ज्ञान बन्धका कारण नहीं है । और न रागादि रहित कर्मोंका उदय ही बंधका बंघ कारण है । अर्थात् नवीन का बंध न ज्ञानसे होता है न पिछले कम उदयसे होता है किन्तु राग द्वेष मोहसे बन्ध होता है । उदयगदा कम्मंसा, जिनवरवसदेहिं नियदिणा भणिया । ते हि मुहिदो रतो, दुझे वा बंधमणुहवदि ॥ ४३ ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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