SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका | उदयगताः कर्माशा जिनवरवृपभैः नियत्या भणिताः । तेषु हि मूढो रक्तो, दुष्टो वा बंधमनुभवति ॥ ४३ ॥ सामान्यार्थ - जिनवर वृषभोंने उदय में आए हुए कर्मो के 1 १६६ ] अंशोंको स्वभावसे परिणमते हुए कमोंमें जो मोही रागी वा द्वेपी कहा है। उन उदयमें प्राप्त होता है वह बंघको अनुभव करता है । अन्य सहित विशेषार्थ :- (उदयंगदा ) उदय में प्राप्त ( कम्मंसा ) कर्माश अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि मूल तथा उत्तर प्रकृतिके भेद रूप क ( जिणवरवसहेहिं) जितेंद्र वीतरोगं भंगवानके द्वारा (णियदिणा) नियतपने रूप' अर्थात स्वभावसें काम करनेवाले (भणिया) कहे गए हैं। अर्थात् जो कर्म उदयमें माते हैं वे अपने शुभ अशुभ फलको देकर चले जाते हैं वे नए बंधको नहीं करते यदि आत्मामें रागादि परिणाम न हों तो फिर किस तरह जीव को प्राप्त होता है । इसका समाधान करते हैं कि(तेसु) उन उदयमें आए हुए कर्मों में (हि) निश्वयंसे ( सुहिदो ) मोहित होता हुआ (स्तो) रागी होता हुआ ( वा दुट्टो ) अथवा द्वेषी होता हुआ ( बंधम् ) बंधको, ('अणुहवदि) अनुभव करता है । जब कमका उदय होता है तब जो जीव मोह राग द्वेषसे विलक्षण निज़ शुद्ध आत्मतत्वकी भावनासे रहित होतां हुमा विशेष करके मोही, रागी वा द्वेषी होता है सो केवलज्ञान आदि अनंत गुणोंकी प्रगटता जहां होजाती है ऐसे मोक्षसे विलक्षण प्रकृति; स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप चार प्रकार वन्धको भोगता है अर्थात् उसके नए कर्मा बन्ध जाते हैं। इससे यह ठहरा किं
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy