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________________ १६४] श्रीमवचनसार भाषाटीका। करके पीछे पदार्थको जानता है तब पदार्थ अनंत हैं इससे सर्व पदार्थका ज्ञान नहीं हो सका । अथवा तीसरा व्याख्यान यह है कि जब छद्मस्थ अवस्थामें यह बाहरके ज्ञेय पदार्थोका चितवन करता है तब रागद्वेषादि रहित स्वसंवेदन ज्ञान इसके नहीं है। स्वसंवेदन ज्ञानके अभावमें क्षायिकज्ञान भी नहीं पैदा होता है ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ-यहां आचार्य कर्मबंधके कारणीभूत भावकी तरफ लक्ष्य दिला रहे हैं-वास्तवमें निर्विकार निर्विकल्प आत्मानुभवरूप वीतराग स्वरूपाचरण . चारित्ररूप शुद्धोपयोग आत्माके ज्ञानका ज्ञानरूप परिणमन है-इस भावके सिवाय जब कोई अल्पज्ञानी . किसी भी ज्ञेय पदार्थको विकल्प रूपसे जानता है और यह सोचता है कि यह पट है यह घट है यह नील है. यह पीत है . यह पुरुष है या, यह स्त्री है, यह सज्जन है या यह दुर्जन है. यह धर्मात्मा है या अवर्मी है, यह ज्ञानी है या यह अज्ञानी है तब विशेष रागढपका प्रयोजन न रहते हुए भी हेय या उपादेय बुद्धिंके विकल्पळे लाथ कुछ न कुछ रागद्वेष होय ही जाता है। यह भाव स्वानुभव दशासे शून्य है इसलिये यह भाव कोके उदवको भोगनेरूप है अर्थात उस भावमें अवश्य मोहका कुछ न कुछ उदय है जिसको वह भाववान अनुभव कर रहा है। ऐसी दशामें मोह भोकाले क्षायिक निर्मल केवलज्ञान उस समय भी नहीं है तथा आगामी भी केवलज्ञानका कारण वह सविकल्प सराग, . भाव नहीं है। केवलज्ञानका कारण तो भेद विज्ञान है मूल जिसका ऐसा निश्चल स्यात्मानुभव ही है.। . . . . . . ....
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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