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________________ १५.] श्रीमवचनसार भाषाट्रीका। mmmmmmmmmmmmmm.. केवलज्ञानमें 2, प्रत्यक्ष. वर्तमानके, समान,झलक रही हैं। इसलिये उनको इस ज्ञानका विषय होनेसे विद्यमान या सत् कहते हैं। द्रव्य अपनी भूत भावी वर्तमान पर्यायोंका समुदाय है-द्रव्य सत् है तो वे सब पर्याये भी सतरूप है। हरएक द्रव्य अपनी संभवनीय अनंत पर्यायोंको पीये बैठा है, प्रत्यक्ष ज्ञानीको उसकी मनंत पर्यायें इसी तरह झलक रही हैं. जैसे. 'अलज्ञानीको वर्तमान में किसी पदार्थकी भूत और . भावी बहुतसी. पर्यायें. झलक जाती हैं। एक गाढेका थान. हाथमें लेते हुए ही उसकी मूतं और मावी . पर्यायें झलक जाती हैं कि यह गाड़ा, लागोंसे बना है, तागे रुईसे बने हैं, रुई वृक्षसे पैदा होती है, 'वृक्ष लईके बोनसे होता है, ये तो भूतः पर्याये हैं तथा इस गाढेकी निरमई, घोती, टोपी बनाएंगे, तब इसको टुकड़े टुकड़ें करेंगे, सीएंगे, घोएंगे, रक्खेंगे, पहनेंगे आदिः गादेकी कम के अधिक अपने जानके क्षयोपशमके अनुसार भूत भावी अवस्थाएं एक बुद्धिरानको वर्तमानकें समान मालम हो जाती हैं, यहां विचार पूर्वक शसकती हैं वहां केवलज्ञानमें स्वयं : स्वभावसे झलकती है.। हरएक कथन अपेक्षा रूप है। त्रिकालगोचर पर्याय सब, सत हैं । विवक्षित समयकी, पर्याय विद्यमान, या सत् तथा उस समयसे पूर्व या उत्तर . समयकी प्रोयें अविद्यमान या असत कही जाती हैं। केवलज्ञानी जैसे मुख्यतासे निन शुद्धात्माके स्वादमें मग्न हैं वैसे ही एक आ. त्मानुभवके अभ्यासीको , स्वरूपमें, तन्मय होना चाहिये तथा अपने आत्माके सिवाय परद्रव्योंको गौणतासे जानना चाहिये, अर्थात उनको जानते हुए भी उनमें विकल्प न करना चाहिये
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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