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________________ श्रीनवचनसार भाषाटीका । [१५३ भाव मागम निक्षेप रूप निम आत्माको, द्रव्य आगम निक्षेप रूप परको मानना चाहिये । शुद्ध निश्चय नयका विषयमूत यह शुद्ध आत्मा परम वीतराग है मतएव इसकी ओर सन्मुखता होनी आत्माको वीतराग और शांत करके सुखी बनानेवाली है तथा पूर्व कर्मोकी निर्भरा करनेवाली तथा अनेक कर्मोंकी संवर करनेवाली है ऐसा जानकर जिस तरह बने निन शुद्ध भावका ही मनन करना चाहिये जिससे अनुपम केवलज्ञान प्रगटे और आत्मा परमानंदी होनावे ॥२८॥ उत्थानिका-आगे इसी बातको दृढ़ करते हैं कि असद मूत पर्याय ज्ञानमें प्रत्यक्ष हैं:जदि पञ्चक्खमजादं, पजायं पलयिदं च णाणस्स। ण हचदि वा तं जाणं, दिव्वंत्तिहिके परुविति ॥३९ यदि प्रत्यञ्चोऽजातः पर्यायः प्रलयितश्च ज्ञानस्य । न भवति वा तत् ज्ञानं दिनमिति हि के प्ररूपयन्ति ॥३९॥ सामान्यार्थ-यदि भावी और भूत पर्याय केवलज्ञानके प्रत्यक्ष न हो तो उस ज्ञानको दिव्य कौन कहें ? अर्थात कोई भी न कहे। __ अन्वय सहित विशेषार्थ-(नदि) यदि ( अनाद) अनुत्पन्न जो अभी पैदा नहीं हुई है ऐसी भावी (च पलयिद) तथा जो चली गई ऐसी भूत ( पन्जायं) पर्याय (गाणस्स) केवलज्ञानके (पच्चख) प्रत्यक्ष (ण हवदि) न हो (वा) तो (तं गाणं) उस ज्ञानको दिव्यंत्ति) दिव्य अर्थात् अलौकिक अतिशय रूप (हि) निश्चयसे (के) कौन (परूपिति) कहें ? अर्थात कोई भी न कहें । भाव यह
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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