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________________ १६.1 श्रीमवचनसार भाषाटीका । निश्चयसे वे अपने भापका ही वेदन कर रहे हैं अर्थात पूर्ण ज्ञान चेतना रूप वर्तन कर रहे हैं। इसी तरह मोक्षार्थी व साम्यभावके अभ्यासीको भी उचित है कि यद्यपि वह अपने श्रुतज्ञानके वलसे अनेक द्रव्योंकी भूत और भावी पर्यायोंको वर्तमानवत् जानता है तो भी एकाय होकर निश्चय, रत्नत्रयमई अपने शुद्ध भात्माके शुद्ध भावको तन्मयी होकर जाने तथा उसीका ही मानन्दमई स्वाद लेवे । यही स्वानुभव पूर्ण स्वानुभवका तथा पूर्ण त्रिकालवी ज्ञानका वीन है। वर्तमान और भविष्यमै मात्माको मुखी निराकुल रखनेवाला यही निजानंदके अनुभवका अभ्यास है । इसका ही प्रयत्न करना चाहिये यह तात्पर्य है। यहांपर यह भी भाव समझना कि जैसे केवली भगवान प्रत्यक्ष सर्व लोक मलोकको देखते जानते हुए भी परम उदासीन तथा आत्मस्थ रहते तैसे श्रुतज्ञानी महात्मा भी श्रुतके मालम्वनसे सर्व ज्ञेयोंको पद्व्योंका समुदाय रूप नानकर उन सबसे उदासीन होकर भात्मस्थ रहते हैं । श्रुतज्ञानीने यद्यपि भनेक विशेष नहीं जाने हैं तथापि सर्व ज्ञानकी कुंजी पा ली है इससे परम संतुष्ट है-वीतरागी है। उत्थानिका-आगे आचार्य दिखलाते हैं कि पूर्व गाथामें जो अपमृत शब्द कहा है वह संज्ञा भूत और भविष्यकी पर्यायोको दी गई हैजे णेव हि संजाया, जे खलु णटा भवीयपनाया। ते होंति असम्भूया, पजाया णाणपञ्चक्खा ॥३८॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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