SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3 श्रीश्वचनसार 'भाषाटीका । संकर व्यतिकर दोषके विना (तक्कालिगेव) वर्तमान पर्यायोंक समाने ( ब ) वर्तती हैं, अर्थात् प्रतिभासती हैं या स्कुरायमान P " होती हैं | भाव यह है कि जैसे छद्मस्य अल्पज्ञानी मविश्रुतज्ञानी पुरुषके भी अंतरंग मनसे विचारते हुए पदार्थोकी भूत और भविष्य पर्यायें प्रगट होती हैं अथवा जैसे चित्रमई भी बाहुबलि भरत आादिक भूतकाल के रूप' तथा श्रेणिक तीर्थंकर आदि भात्री कालके रूप वर्तमानके समान प्रत्यक्ष रूपसे दिखाई पड़ते तैसे चित्र भीतके समान केवलज्ञान में भूत और भावी अवस्थाएं भी एक साथ प्रत्यक्ष रूपसे दिखाई पड़ती हैं इसमें कोई विरोध नहीं है । तथा जैसे यह केवली भगवान 1 परद्रव्योंकी पर्यायौंको उनके ज्ञानाकार मात्र से जानते हैं, तन्मय होकर नहीं जानते हैं, परन्तु निश्चय करके केवलज्ञान आदि गुणका आधारभूत अपनी ही मि पर्यायको ही स्वसंवेदन या स्वानुभव रूपसे तन्मयी हो जानते हैं, वैसे निकट भव्य जीवको भी उचित है कि अन्य द्रव्यों का ज्ञान रखते हुए भी अपने शुद्ध आत्म द्रव्यकी सम्यक् शृद्धान, ज्ञान तथा चारित्र रूप निश्चय रत्नत्रय मई अवस्थाको ही सर्व तरहसे तन्मय होकर जाने तथा अनुभव करे यह तात्पर्य है । .. ', भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने फिर केवलज्ञानको अपूर्व महिमाको प्रगट किया है- द्रव्योंकी पर्यायें सदाकाल हुआ करती हैं । वर्तमान समय सम्बन्धी पर्यायोंको सद्भूतं तथा भूत और : भावी पर्यायोंको सद्भत कहते हैं । केवलज्ञानमें तीन काल संबंधी सर्व छः द्रव्योंकी सर्व पर्यायें एक साथ अलग २ अपने w
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy