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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१७ लेता है। नौ भी पर ज्ञेयोंसे आत्मा सदा भिन्न रहता है-आपके केवलज्ञानकी अपूर्व शक्तिको जानकर हरएक धर्मार्थीका कर्तव्य है कि जिस साम्यमाव या शुद्धोपयोगसे निज स्वरूपका विकाश होता है उस शुद्धोपयोगकी सदा भावना करे। ___ इस तरह निश्चय श्रुतकेवली, व्यवहार श्रुतक्षेवली के कथनकी मुख्यतासे आत्माके ज्ञान स्वभावके सिवाय भिन्न ज्ञानको निराकरण करते हुए तथा ज्ञान और ज्ञेयका स्वरूप कथन करते हुए चौथे स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि छात्माके वर्तमान ज्ञानमें अतीत और अनागत पर्यायें वर्तमानके समान दिखती हैं:तकालिगेय सव्वे, सदसम्भूदा हि पजया तासि । वते ते गाणे, विसेसदो व्यजादाणं ॥ ३७॥ तात्कालिका इव सर्वे सदसद्भूता हि पर्यायास्तासाम् । क्तन्ते ते शाने विशेषतो द्रव्यजातीनाम् ॥ ३७॥ सामान्यार्थ-उन नीवादि द्रव्य नालियोंकी सर्व ही विद्यमान और अविद्यमान पर्याय निश्चयसे उस ज्ञानमें विशेषतासे वर्तमान कालकी पर्यायों की तरह वर्तती हैं। ____ अन्वय, सहित विशेषार्थ-( तासिं दव्वनादीण) उन प्रसिद्ध शुद्ध जीव द्रव्योंकी व अन्य व्योंकी (ते) वे पूर्वोक्त (सव्वे) सर्व (सदसमृदा) सद्भुत और बाद्गृत अर्थात् वर्तमान और आगामी तथा भविष्य कालकी (पज्जया) पर्याय (हि) निथ. यसे या स्पष्ट रूपसे ( णाणे ) केवलज्ञानमें (विसेसदो विशेष करके अर्थात अपने २ प्रदेश, काल, आकार आदि भेदोंके साथ
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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