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________________ ११० ] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । नहीं छोड़ता हुआ भी लोक अलोकको जानता है । इम कारण से व्यवहार नयसे भगवानको सर्वगत कहा जाता है ! और क्योंकि जैसे नीले पीत आदि बाहरी पदार्थ दर्पण में झलकते हैं ऐसे ही बाह्य पदार्थ ज्ञानाकारसे ज्ञान में प्रतिविम्बित होते हैं इसलिये व्यव हारसे पदार्थों द्वारा कार्यरूप हुए पदार्थोंके ज्ञान आकार भी पदार्थ - कहे जाते हैं । इसलिये वे पदार्थ ज्ञानमें तिष्ठते हैं ऐसा कहने में दोष नहीं है । यह अभिप्राय है । भावार्थ - इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि आत्मा सर्वगत या सर्वव्यापक किस अपेक्षा से कहा नासक्ता है । जिसतरह दूसरे कोई मानते हैं कि आत्मा अपनी सत्तासे प्रदेशकी अपेक्षा सर्वव्यापक है उपतरह तो सर्वव्यापक नहीं होक्ता । प्रदेशोंकी अपेक्षा तो समुद्घातके सिवाय शरीर के - आकार के प्रमाण आत्माका आकार रहता है और उस आत्माके आकार ही आत्मा के भीतर सर्व प्रदेशोंमें व्यापक ज्ञान आदि गुण पाए जाते हैं । परन्तु जैसे पहले ज्ञानको सर्वलोक अलोकके जाननेकी अपेक्षा व्यवहार से सर्वव्यापक कहा है वैसे ही यहां व्यव- हार से आत्माको सर्वव्यापक कहा है । यद्यपि हरएक आत्मामें सर्वज्ञपनेकी शक्ति है तथापि यहां व्यक्ति भपेक्षा केवलज्ञानी भर- और सिद्ध परमात्माको ही लक्ष्यमें लेकर उनको सर्वगत या सर्वव्यापक इसलिये कहा गया है कि उनका आत्मा ज्ञानसे तन्मय है। जब ज्ञान सर्वगत है तब ज्ञानी आत्माको भी सर्वव्यापक कह सक्ते हैं। "जैसे आत्माको सवगत कहते हैं वैसे यह भी कहते हैं कि सर्वज्ञेय पदार्थ मानों भगवान की आत्मामें समागए या प्रवेश होगए। ·
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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