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________________ w श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [१०९ सव्वगदोजिणवसहो,सनेवि य तरगया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो, विसयादो तस्स ते भाणदा॥ सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेपि च तद्गता जगत्याः । ज्ञानमयत्वाय जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ॥ २६ ॥ सामान्यार्थ-ज्ञानमयी होने के कारणसे श्री मिनेन्द्र अहेत भगवान सर्वगत या सर्व व्यापक हैं तथा उस भगवानके ज्ञानके विषयपनाको प्राप्त होनेसे जातमें सर्वे ही जो पदार्थ हैं सो उस भगवानमें गत हैं या प्राप्त हैं ऐसे कहे गए हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-( णाणमयादो य ) तथा ज्ञानमयी होने के कारणरो (जिणवसहो ) जिन जो गणधादिक उनमें वृषभ अर्थात् प्रधान (निणो) जिन अर्थात् कर्मोको जीतनेवाले अरहंत या सिद्ध भगवान (सव्वगदो ) सर्वगत या सर्व व्यापक हैं । ( तरस ) उस भगवानके ज्ञानके (विसपादो) विषयपनाको प्राप्त होने के कारणसे अर्थात् ज्ञेयपनेको रखनेके कारणसे (सनेवि य जगति ते अठ्ठा) सर्व ही जगतमें जो पदार्थ हैं सो (तगया) उस भगवानमें प्राप्त या व्याप्त (भगिदा कहे गए हैं । जैसे दर्पण में पदार्थका विम्ब पड़ता है तसे व्यवहार नयसे पदार्थ भगवानके ज्ञान में प्राप्त हैं। भाव यह है कि जो अनन्तज्ञान है तथा मनाकुलपने के लक्षणको रखनेवाला अनन्त सुख है उनका आधारभूत जो है सोही आत्मा है इस प्रकारके आत्माका जो प्रमाण है वही आत्माके ज्ञानका प्रमाण है और वह ज्ञान आत्माका अपना स्वरूप है। ऐसा अपना निज स्वभाव देह के भीतर प्राप्त आत्माको
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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