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________________ wwwwwww श्रीमवचनसार भापाटीका। [१५ क्योंकि केवलीके ज्ञानमें सर्व ज्ञेयोंके साकार ज्ञानाकार होगए हैं। यद्यपि ज्ञेय पदार्थ भिन्न २ हैं तथापि उनके ज्ञानाकागेंका ज्ञानमें झलकनां मानों पदार्थोंका झलकना है। ज्ञानमें जैसे प्राप्त हैं वैसे आत्मामें प्राप्त हैं दोनों कहना विपयकी अपेक्षा समान है । जैसे दर्पणमें मोर दीखता है इसमें मोर कुछ दर्पणमें पैसा नहीं, मोर अलग है, दर्पण अलग है, तथापि मोरके आकार दर्पणको प्रभा परिणमी है, इससे व्यवहारले यह कह सक्ते हैं कि दपण या दर्पणकी प्रभा मोरमें व्याप्त है अथवा मोर दर्पणकी प्रभामें या दर्पणमें व्याप्त है। इसी तरह केवलज्ञानी भगवान अरहंत या सिद्ध तथा उनका स्वाभाविक शुद्ध ज्ञान अपने ही प्रदेशोंकी सत्तामें रहते हैं। नवे पदार्थोके पास जाते और न पदार्थ उनके पास माते तथापि झलकनेकी अपेक्षा यह कह सक्ते हैं कि अरहंत या सिद्ध भगवान या उनका ज्ञान सर्वगत या सर्व व्यापक है अथवा सर्व लोकालोक ज्ञेय रूपसे भगवान रहंत या सिद्धमें या उनके शुद्ध ज्ञानमें व्याप्त है। यहां भाचार्य ने उसी केवलज्ञानकी विशेष महिमा बताई है कि वह सर्वगत होकरके भी पूर्ण निराकुल रहता है। आत्मामें रागद्वेषका सदभाव न होनेसे ज्ञान या ज्ञानी आत्मा स्वभावसे सर्वको जानते हुए भी निर्विकार रहते हैं-ऐसा अनुपम केवलज्ञान नित शुद्धोपयोग या साम्यभावके अनुभवसे प्राप्त होता है उसहीकी भावना करनी चाहिये, यह तात्पर्य है। उत्यानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञान मात्माका स्वभाव है तथापि मात्मा ज्ञान स्वभाव भो है तथा सुम्ब आदि स्वभाव रूप भी है-केवल एक ज्ञानगुणा ही धारी नहीं है
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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