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________________ पञ्चतन्त्र तो अजीब ही है, क्योंकि वह एक आदमी का कान छूता है और दूसरे का समूल नाश कर देता है । और भी "दुष्ट और साँप द्वारा मारने के उल्टे तरीके हैं; एक तो आदमी के कान लगता है और दूसरा प्राण ले लेता है। ऐसा होने पर मुझे क्या करना चाहिए, यह मैं तुझसे मित्रभाव से पूछता हूँ।" दमनक ने कहा, “तुम्हें विदेश चले जाना चाहिए , पर ऐसे कुस्वामी की सेवा करना ठीक नहीं । कहा है कि "अभिमानी, बुरे-भले काम में भेद न करने वाले और बुरे रास्ते पर चलने वाले गुरु का त्याग करना भी ठीक है ।" संजीवक ने कहा , “यह ठीक है , पर अपने ऊपर स्वामी के गुस्से होने पर दूसरी जगह नहीं जाया जा सकता और जाने पर भी शांति नहीं. मिल सकती । कहा भी है ''जो मनुष्य बड़े आदमी का अपराध करता है उसे 'मैं दूर हूँ' यह मानकर भरोसा नहीं करना चाहिए। बुद्धिमान के हाथ लम्बे होते हैं, और उनसे वह हिंसक को मार देता है। इसलिए युद्ध के सिवाय मेरे लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं है। "धीर और सुशील पुरुष युद्ध में मरकर एक क्षण में जिस लोक को जाता है उस लोक में तीर्थ करने से , तप करने से और धन दान करने से स्वर्ग मिलने के इच्छुक नहीं जा सकते। "मरने से तो स्वर्ग मिलता है और जीवित रहने से उत्तम कीर्ति; ये दोनों गुण वीर-पुरुषों के लिए दुर्लभ नहीं हैं। जिस वीर के माथे से बहता हुआ खून मुंह में गिरता है, वह खून युद्ध रूपी यज्ञ में विधिवत् सोमपान के समान पुण्यमय होता है। और भी "होम करने से , अनेक प्रकार की दान-विधियों से, उत्तम ब्राह्मण की पूजा करने से , खूब दक्षिणा वाले यज्ञों को ठीक तरह से करने
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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