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________________ ८२ लायक भी नहीं है । कहा भी है। -- पञ्चतन्त्र “गले तक जान आ जाने पर भी बुद्धिमान पुरुष को इस लोक और परलोक को नाश करने वाली अखाद्य वस्तु नहीं खानी चाहिए । इसमें भी विशेषकर अगर वह बहुत छोटी हो तब तो उसे बिलकुल ही नहीं खाना चाहिए । तूने अपनी कुलीनता दिखला दी अथवा यह ठीक ही कहा है कि राजा कुलीनों को इकट्ठा करते हैं, इसकी वजह यह है कि वे आदि, मध्य और अन्त में बिगड़ते नहीं । इसलिए तू आगे से हट जिससे मैं मालिक से कुछ कहूँ ।" सियार के हटने पर चीते ने मदोत्कट को प्रणाम करके कहा, “आप मेरी जान से अपना शरीर चलाइये, मुझे अक्षय स्वर्गवास दीजिये और मेरा यश इस पृथ्वी पर फैलाइये । इस बारे में आपको आश्चर्य नहीं करना चाहिए । कहा है कि "स्वामी के अनुकूल रहते तथा स्वामी का काम करते हुए जिन सेवकों की मृत्यु होती है उनका स्वर्ग में अक्षयवास होता है और पृथ्वी पर उनकी कीर्ति फैलती है ।" यह सुनकर ऊँट सोचने लगा, 'इन सब ने स्वामी से मीठी-मीठी बातें कहीं, पर स्वामी ने इनमें से एक को भी नहीं मारा । इसलिए मैं भी समयानुकूल बातचीत कहूँ, जिससे मेरी बात का ये तीनों समर्थन करें ।' इस तरह निश्चय करके वह बोला, "अरे! तुमने ठीक कहा पर तुम भी पंजे वाले हो, फिर कैसे तुम्हें स्वामी खायंगे। कहा है, "अपनी जाति वालों का मन में भी जो अनिष्ट सोचता है उसे इस लोक में और परलोक में अनिष्ट ही मिलता है । इसलिए तुम आगे से हटो, जिससे मैं स्वामी से कुछ कहूँ ।" ऐसा कहने पर ऊँट ने आगे बढ़ और खड़े होकर प्रणाम करके कहा, “स्वामी ! यह सब आपके लिए अखाद्य हैं, इसलिए मुझे मारकर शरीर - रक्षा कीजिये, जिससे मुझे इहलोक और परलोक मिले। कहा भी है
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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