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________________ मित्र-भेद १७ आप की आज्ञा । " भीतर आकर दमनक अपने निर्धारित आसन पर पिंगलक को प्रणाम करके और उसकी आज्ञा पाकर बैठ गया । उसने वजूरूपी नखों से अलंकृत अपने दाहिने पंजे को उसके सिर पर रखकर मानपूर्वक कहा, " तेरी कुशल तो है न ? बहुत दिनों से तुझसे भेंट नहीं हुई।" दमनक ने कहा, “आपको मेरा कोई काम न था, पर समय आने पर बात कहनी ही पड़ती है, क्योंकि उत्तम, मध्यम और अधम इन सबके साथ राजाओं का काम पड़ता है । कहा है कि "राजा को भी दाँत खोदने अथवा कान खुजलाने के लिए खरके की आवश्यकता पड़ती है, तो फिर वाणीयुक्त और हाथ वाले मनुष्य का तो कहना ही क्या ! हम सब पुश्त-दरपुश्त से आपके चरण- सेवक हैं और विपत्तियों में भी आपके पीछे-पीछे फिरते रहते हैं । हम अपना अधिकार नहीं पाते, आपके लिए यह उचित नहीं है । कहा भी है कि "सेवकों और आभूषणों को उनके स्थान पर ही रखना चाहिए । मैं 'मालिक हूं ' इस विचार से चूड़ामणि पैरों में नहीं बंधती । कारण कि राजा धनाढ्य हो, कुलीन हो और प्राचीन वंश वाला हो, फिर भी अगर वह गुणों से अपरिचित हो तो सेवकगण उसके पीछे नहीं चलते । कहा भी है “स्वामी अगर सेवक को असमान सेवकों के समान बरतता हो, समान सेवकों में उसका कम सत्कार करता हो और उसको मुख्य स्थान न देता हो तो इन तीन कारणों से सेवक उसे छोड़ देता है ।' यदि राजा अविवेक से उत्तम पद के लायक सेवकों को हीन और अधम स्थानों में लगाता है तो वे वहां नहीं रहते, यह राजा का दोष है, उनका नहीं । कहा भी है
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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