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________________ मित्र-संप्राप्ति, १५७ उस जंगल में प्रलोभक नाम का एक सियार रहता था। वह एक समय अपनी पत्नी के साथ आनन्दपूर्वक नदी के किनारे बैठा हुआ था कि इतने में बैल के लटकते हुए अंडकोशों को देखकर सियारिन ने सियार मे कहा , “स्वामिन् ! देखो इस बैल के दो मांस-पिंड लटक रहे हैं। एक क्षण अथवा पहर में वे नीचे गिर जायंगे, यह जानकर तुम्हें इसके पीछे जाना चाहिए । सियार बोला, “प्रिये ! ये कभी गिरेंगे या नहीं, यह कहा नहीं जा सकता। इसलिए तू क्यों मुझे फिजूल की मेहनत में लगाती है। पानी पीने आने वाले चूहों को मैं तेरे साथ यहां बैठकर खाऊंगा, क्योंकि यह उनके आने का रास्ता है । अगर मैं तुझे यहां छोड़कर इस तीक्ष्णविषाण बैल के पीछे जाता हूं तो कोई दूसरा आकर इस जगह पर बैठ जायगा । इसलिए ऐसा करना ठीक नहीं। कहा है कि "निश्चित वस्तुओं को छोड़कर जो अनिश्चित वस्तुओं की सेवा करता है उसकी अनिश्चित वस्तुएं तो नाश होती ही हैं साथ-साथ निश्चित वस्तुएं भी नष्ट हो जाती हैं । सियारिन ने कहा, 'तुम डरपोक हो, क्योंकि जो कुछ मिल जाता है तुम उसी पर संतोष करते हो । कहा भी है "छोटी नदी झट भर जाती है , चूहे की अंजुली भी झट भर जाती है तथा संतोष में रहने वाला कायर मनुष्य भी थोड़ी चीजों से संतुष्ट हो जाता है। इसलिए आदमी को सदा हिम्मत रखनी चाहिए । कहा है कि "जहां काम उत्साहपूर्वक आरम्भ होता है, जहां आलस्य नहीं होता और जहां नीति और पराक्रम का मेल होता है, वहां लक्ष्मी निश्चय रहती है । ''भाग्य ही ठीक है यह सोचकर अपना उद्यम छोड़ना नहीं चाहिए। बिना उद्यम के तिल में से तेल भी नहीं निकलता । और भी "जो मूर्ख मनुष्य थोडे में संतोष कर लेता है , उस भाग्यहीन को दी
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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