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________________ १५८ पञ्चतन्त्र गई लक्ष्मी भी निकल जाती है। तुम कहते हो कि ये गिरेंगे नहीं, यह ठीक नहीं । कहा है कि "दृढ़-संकल्प मनुष्य वंदन करने योग्य है, केवल बड़ाई किसी काम की नहीं । कहां बिचारा चातक, पर इन्द्र भी उसके लिए पानी लाने का काम करते हैं। फिर चूहे का मांस खाते-खाते मेरी तबीयत थक गई है। ये मांस-पिंड गिरने ही वाले हैं, इसलिए तुम्हें कोई दूसरा काम नहीं करना चाहिए।" यह सुनकर वह सियार चूहे मिलने वाली जगह को छोड़कर तीक्ष्ण विषाण के पीछे चला । अथवा यह ठीक ही कहा है कि "तभी तक आदमी अपने सब कामों का मालिक है जब तक वह स्त्री की बातों के आंकुस से बलपूर्वक प्रेरित नहीं होता। "स्त्री की बात से प्रेरित मनुष्य बुरे काम को अच्छा काम, अगम्य को गम्य , न खाने लायक को खाने लायक मानता है।" इस तरह पत्नी के सहित बैल के पीछे-पीछे घूमते हुए उसे बहुत समय बीत गया पर मांस के वे गोले गिरे नहीं। पन्द्रहवें वर्ष दुखी होकर सियार ने अपनी स्त्री से कहा-“भद्रे ! लम्बे और ढीले पड़े हुए ये दोनों मांस-पिंड गिरेंगे या नहीं , इस आशा में मैं १५ वर्ष देखता रहा। अब ये गिरेंगे नहीं, इसलिए अब हमें अपनी जगह जाना चाहिए।" पुरुष ने कहा , “अगर यही बात है तो वर्धमानपुर जा । वहां दो बनिए रहते हैं । एक का नाम गुप्तधन और दूसरे का उपभुक्तधन है । उन दोनों को जानकर उनमें से एक की तरह बनने का मुझसे वरदान मांगना । जो तुझे उपभोग बिना धन की जरूरत होगी तो मैं तुझे गुप्तधन बनाऊंगा। दान और उपभोग में लगने वाले धन की अगर तुझे जरूरत होगी तो तुझे उपभुक्तधन बनाऊंगा।" यह कहकर वह पुरुष अदृश्य हो गया। चकित होकर सोमिलक फिर वर्धमानपुर गया। वह थका हुआ संध्या-समय उस नगर में पहुंचा और गुप्तधन का घर पूछता हुआ मुश्किल
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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