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________________ कटा है मित्र-संप्राप्ति १२७ काढूंगा और इस तरह तू फिर से बहुत से कबूतरों का मालिक बन बैठेगा। कहा है कि "जो राजा सदाचारी सेवकों के क्लेश पाने पर सुखी होता है वह नरक जाता है और उसे यहां दुःख मिलता है। यह कहकर सबका बंधन काटकर हिरण्यक ने चित्रग्रीव से कहा, "मित्र ! तू अपने घर जा , फिर विपत्ति पड़ने पर यहां आना।" इस तरह कबूतरों को बिदा देकर वह फिर अपने किले में घुस गया। अपने परिवार के सहित चित्रग्रीव भी अपने घर वापस चला गया । अथवा ठीक ही कहा है 'मित्रों वाला मनुष्य कठिन बातें भी सिद्ध कर लेता है, इस तरह अपने ही जैसे मित्र बनाने चाहिएं।" लघुपतनक भी चित्रग्रीव के बंधने और छूटने की सब घटना देखकर और विस्मित होकर विचार करने लगा, "अरे, इस हिरण्यक की बुद्धि, ताकत और दुर्ग की सामग्री कितनी है ! पक्षियों के बंधन से छूटने की यही रीति है । मैं चंचल प्रकृति का होने से किसी का विश्वास नहीं करता फिर . भी इसे मैं अपना मित्र बनाऊंगा। क्योंकि कहा है "सम्पूर्णतया युक्त होने पर भी विद्वानों को मित्र बनाना चाहिए। भरा हुआ समुद्र भी चन्द्रोदय की कामना करता है।" इस तरह सोचकर वह पेड़ पर से उतरा और बिल के दरवाजे पर आकर चित्रग्रीव की बनावटी आवाज में उसने हिरण्यक को बुलाया।“अरे! अरे!हिरण्यक आ, आ!" यह आवाज सुनकर हिरण्यक ने सोचा, “क्या किसी कबूतर का बंधन बच गया है जिससे वह मुझे पुकार रहा है ?" और उसने कहा, "तू कौन है ?" कौए ने कहा , “मैं लघुपतनक नाम का कौआ हूं।" यह सुन कर बिल के और भी भीतर घुसते हुए हिरण्यक ने कहा, “इस जगह से फौरन भाग जा।” कौए ने कहा, "मैं तेरे पास बड़े काम से आया हूं । फिर तू क्यों मुझसे मुलाकात नहीं करता ?" हिरण्यक ने कहा , “तेरे साथ मुलाकात की मुझे जरूरत नहीं है।" लघुपतनक ने कहा, "मैंने तुझसे
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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