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________________ १२८ पञ्चतन्त्र चित्रग्रीव का बंधन कटते देखा है, इसलिए मेरा तेरे ऊपर बड़ा प्रेम हो गया है। कदाचित् कभी मैं भी बंधा तो तेरे पास आने पर छूट सकूगा । इसलिए त् मेरे साथ मित्रता कर।" हिरण्यक ने कहा, "अरे! तू खाने वाला और मैं खाद्य हूं। फिर तेरे साथ मेरी मित्रता कैसी ? इसलिए भाग जा। दुश्मन मे मित्रता कैसी ? कहा भी है-- "जिनका समान धन और समान कुल हो उन्हीं के बीच मित्रता और विवाह होते हैं, बलवान और निर्बलों के बीच नहीं । और भी "जो दुर्बुद्धि और मूर्ख अपने से उतरने अथवा चढ़ते अथवा अप से बिलग के साथ मित्रता करता है वह लोगों की हँसी का पात्र होता है । इसलिए तू जा।" कौए ने कहा, "अरे हिरण्यक ! मैं तेरे किले के फाटक पर बैठा हूं। यदि तू मुझसे मित्रता नहीं करेगा तो मैं तेरे सामने अपनी जान दे दूंगा अथवा मृत्युपर्यन्त भूखा रहूंगा।" हिरण्यक ने कह', "अरे ! तुझ वैरी के साथ मैं कैसे मित्रता करूं ? कहा भी है-- "शत्रु के साथ गहरा मेल चिकनी-चुपड़ी संधि से भी नहीं करना चाहिए, अच्छी तरह से गरम किया हुआ पानी भी आग को बुझा देता है।" कौए ने कहा, "अरे ! तेरे साथ मेरी मुलाकात तक नहीं हुई, फिर शत्रुता काया सवाल ?" हिरण्यक ने कहा, "वैर दो तरह के होते हैं, सहज और नकली । तू मेरा सहज वैरी है। कहा भी है-- "नकली दुश्मनी नकली गुणों से खतम हो जती । पर सहज वैर - बिना मरे कम नहीं होता।" कौए ने कहा , “दो तरह की शत्रुताओं क में लक्षण सुनन· चाहता हूं, तू कह।" हिरण्यक ने कहा , "किसी कारण से पैदा हुई शत्रता बनावटी होती है। योग्य उपचार करने से वह चली जाती है । पर स्वाभाविक शत्रुता कभी नहीं जाती। जैसे नेवले और सर्प की , घास खाने वाले और मांसाहारी की , जल और आग की , देव और दैत्यों की, कुत्ते और बिल्ली
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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