SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. सम्यक् मिथ्या ज्ञान ५. प्रत्यक्ष ज्ञान मे सम्यक् व मिथ्यापना प्रारभ कर। इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार समझ कि किसी व्यक्ति के लिये यह सम्यक् है और किसी के लिये मिथ्या । जिन गुरुओं से यह आया है उनके लिये तो सम्यक् ही है या जिन्होने इसे पढ कर गुरुओं के ज्ञान के अनुरूप ही अध्यात्म का कोई अखडित यथार्थ चित्रण हृदय पट पर बना लिया है, उनके लिये भी यह सम्यक् है । परन्तु उनके लिये जो कि उस चित्रण से शून्य है, यह मिथ्या है। इसी प्रकार एक ही बात भिन्न भिन्न अपेक्षाओ व आश्रयों से विरोध को प्राप्त हो जायेगी, इसी का नाम अनेकात है। यहा इस स्थल पर एक दूसरे प्रश्न का भी स्पष्टीकरण कर देना चाहिये। वह यह कि परसो के प्रकरण मे मै यह बता ५ प्रत्यक्ष ज्ञान चुका हूँ कि वस्तु को प्रत्यक्ष देखने पर जो प्रतिबिम्ब मे सम्यक व रूप ज्ञान उत्पन्न हुआ करता है वह तो सर्वदा ठीक ही मिथ्यापना होता है, अर्थात् सम्यक् ही होता है, उसमे तो हीनाधिकता या विपरीतता या संशयादि उत्पन्न होने सभव ही नहीं है । और परोक्ष ज्ञान रूप जो चित्रण है, वह ठीक भी हो सकता है और गलत भी। सो यह दूसरी परोक्ष ज्ञान संबधी बात तो आगम से मेल खाती है पर पहली बात आगम से विरोध को प्राप्त हो जाती है । क्योकि यहा जिस प्रत्यक्ष ज्ञान को दृष्टि में रखकर बात की जा रही है वह इद्रिय प्रत्यक्ष के संबंध की है । इसे आगम मे मतिज्ञान कहा गया है। और उसे वहा सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकार का बताया है । जबकि उसे मै सम्यक् ही होने का निश्चय कर रहा हूँ। दूसरे परमार्थ प्रत्यक्ष ज्ञान मे भी भले ही मनः पर्याय व केवलज्ञान के साथ तो यह नियम लागू हो जाता हो, पर अवधिज्ञान के साथ यह नियम लागू नही हो सकता, क्योकि उसको भी दोनों प्रकार का बताया गया है। प्रश्न बहुत सुन्दर है और प्रकरणवश इसका स्पष्टीकरण' यहां किया भी जाना चाहिये । सो भाई ! ठीक ही कहता है । ऊपर से देखने
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy