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________________ ५. प्रत्यक्ष ज्ञान मे सम्यक् व मिथ्यापना ५ सम्यक् मिथ्या ज्ञान ६२ पर तो विरोध स्पष्ट है ही । इस से इन्कार नही किया जा सकता । पर यहा बुद्धि पर जोर देकर विचारने का प्रयत्न करे तो वह विरोध विरोध नही रह पायेगा । आगम वाली बात भी ठीक ही दिखाई देगी, और मेरी बात भी । बस यही तो है अनेकान्त सिद्धात की महिमा | 'पर बुद्धि लगाये बिना इसका स्पर्श कठिन है । प्रकरणवश आगे आगे भी इसी प्रकार के अनेको प्रश्न आयेगे और वहा उन पर अनेकान्त का प्रयोग करके दिखाया जायेगा, या यो कहिये कि भिन्न भिन्न अपेक्षाये लगा लगाकर विरोधों को दूर करके दिखाया जायेगा । इस पर से ही अपेक्षा के प्रयोग करने का उपाय ग्रहण कर लेना, क्योकि पृथक से कोई अध्याय केवल अपेक्षा लागू करने के विषय मे सभवत्. आने न पाये । अपेक्षा लागू करने को दृष्टान्त चाहिये, जिन पर कि वह लागू करके दिखाई जाये । यहा वह दृष्टात सहज उपलब्ध हो रहे हैं । अपेक्षा लागू करने के सबध मे कोई सैद्धातिक नियम नही है, बुद्धि की स्पष्टता ही मात्र एक साधन है । भिन्न भिन्न स्थलो पर भिन्न भिन्न रूप से उनको लागू किया जाता है । यद्यपि आगे आने वाले नयों के विषय पर से उसका किचित अनुमान लगाया जा सकता है, पर वास्तविक उपाय तो निज का अभ्यास ही है । अत जिस प्रकार पहिले प्रश्न में आगम ज्ञान को मिथ्या व सम्यक् दोनो प्रकार का सिद्ध कर दिया गया यहा भी प्रत्यक्ष ज्ञानों में सर्वथा सम्यक्पना किसी अपेक्षा सिद्ध किया जा सकता है । दृष्टांत पर से अपने ज्ञान को मांजने का अभ्यास कर, ताकि स्वतंत्र रीति से स्वत. वह इस प्रकार के प्रश्नों का हल कर सके । तेरा अपना अभ्यास तेरे काम आयेगा । हर समय ज्ञानियों का सम्पर्क बने रहना बहुत कठिन है । और फिर उनसे कराया गया स्पष्टीकरण केवल एक विषय के संबंध मे ही हो सकेगा, सर्व विषयों के सबंध मे कैसे होगा । तेरी ज्ञान की सरलता तो जब है जब कि सर्व विषयो संबंधी स्पष्टीकरण हो जाए, मूल व प्रयोजन --भूत विषय संबंधी सशयादि न रहे । और यह काम केवल अपने ज्ञान के अभ्यास से ही होना संभव है । 1
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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