SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५ सम्यक् व मिथ्या ज्ञान ६० ४ आगम ज्ञान में सम्यक् व . . मिथ्यापना लिये तो वह अध्यात्म विज्ञानरूप न होकर केवल शब्द मात्र है । इसलिये पहिले व्यक्ति के लिये, यह आगम शान साररूप है और दूसरो के लिये नि सार । पहिले के लिये प्रमाण है और दूसरों के लिये प्रमाण भास या अप्रमाण । पहिले के लिये अगो का यथास्थान जडित समुदाय रूप है, और दूसरो के लिये पृथक पृथक पड़े तथा भाव शून्य शब्दों का ढेर मात्र । इसलिये यही आगम पहिले व्यक्ति के लिये संशयादि रहित है और दूसरो के लिये सशयादि सहित । भले ही ११ अंग पढ ले, धारणा इतनी प्रबल कर ले कि सारा आगम कंठ मे पड़ा हो पर वह सव उपरोक्त रीति से अखडित चित्रण रूप प्रमाण से निरपेक्ष रहने के कारण सगयादि रहित नही हो सकेगा। बस सार निकल आया कि वस्तु के अखडित अनेकागी चित्रण का हृदय पट पर सद्भाव रहने पर तो प्रमाणनय आदि चारों सम्यक् है, और उसके अभाव मे चारो मिथ्या । यही वह सार है जिसको पढना है। अहकार व मिथ्या अभिमान अपने लिये ही घातक है। अतः भाई अब इस अभि४ अागम ज्ञान मान को छोड कि मुझे आगम ज्ञान है । और इसे सम्क्मे सम्यक व ज्ञान कहा गया है, अत. में सम्यग्ज्ञानी हूँ। अपने अन्दर मिथ्यापना झुककर उस अखड चित्रण की खोज कर । यदि वह वहा नही है तो अवश्य ही तत्सवधी सशय, विपर्यय या अनध्यवसाय मौजूद है और इसलिये वह तेरा आगम ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं है, मिथ्या ज्ञान है। झुंझलाने की बात नही । सुधार करके उन्नति करने की बात है। और देखिये यही से अनेकान्त उदय होकर अपना परिचय दे रहा है, एक वस्तु मे दो अगो का प्रदर्शन कर रहा है । आगम सर्वथा सम्यग्ज्ञान नहीं, यही आगम या जिन वाणी सम्यक् भी है और मिथ्या भी। अरे अरे | जिन वाणी को यहा मिथ्या कहा जा रहा है। भाई ! झुझलाने की बात नही । यह तेरी झुझलाहट ही वास्तव मे खेचातानी रूप एकात है। यथा योग्य रीति से अर्थ लगाने का अभ्यास यहा से ही
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy