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________________ { २०. विशुध्द अध्यात्म नय ७०४ ४. सद्भुत यवहार नय सामान्य की अपेक्षा नही | क्योंकि यहा गुण व गुणी मे सतृ रूप से अभेद होते हुए भी भेद करने को व्यवहार नय कहते है । ५२३ | जिस समय इस सत् के साधारण या सामान्य गुण अथवा असाधारण या विशेष गुण इन दोनो मे से कोई एक गुण भी विवक्षित होता है उस समय निश्चय से व्यवहार नय ठीक कहलाता है । ५२३ । इसका उदाहरण ऐसे समझो जैसे 'द्रव्य सत है' अथवा 'ज्ञानवान जीव है' ऐसा कहना । ५९१ । अभेद वस्तु मे भी, उसको भिन्न भिन्न कार्यों पर से, गुणो रूप इन भेदो का कथञ्चित ग्रहण अवश्य हो रहा है । यदि सर्वथा न हुआ होता तो गुण-गुणी का विकल्प भी होना असम्भव था । वस्तु मे इस प्रकार के कथञ्चित भेद का सद्भाव ही इस नय की उत्पत्ति का कारण है । परिचित भेदो के आधार पर उनसे तन्मय अभेद तथा यथार्थ द्रव्य सामान्य का परिचय देना इसका प्रयोजन है । या यों कहिये कि अनन्त धर्मात्मक एक धर्मीके अस्तित्व की प्रतिति करना इसका प्रयोजन है । 'वस्तु मे दो प्रकार भेद देखे जा सकते है-स्वभाविक अगो अर्थात गुणो व उनके स्वभाविक कार्षो के आधार पर तथा विभाविक अंगो के अर्थात पर सयोगी निज भावों के आधार पर । इस प्रकार विषय भेद से इस नय के भी दो भेद हो जाते है- सद्भूत व असद्भूत । इनके लक्षण व भेदादि ही अब आगे दिखाये जायेगे । व्यवहार नय सामान्य वत् सद्भूत व्यवहार नय का लक्षण भी ४. सद्भूत व्यवहार वस्तु मे गुण गुणी भेद करना है । यहां भी पर्याय नय सामान्य पर्यायी को अवकाश नही । अन्तर केवल इतना है । कि यहां द्रव्य सामान्य मे जाति भेद दर्शाना अभीष्ट है । इसलिये पृथक पृथक द्रव्यों के विशेष गुणो को यहां लक्षण रूप से ग्रहण
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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