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________________ १६. व्यवहार नय H ६६८ ७. सद्भुत व्यवहार के कारण व प्रयोजन ( अर्थ -- विवक्षित वस्तु के गुण का नाम सद्भूत है और उस गुण की प्रवृत्ति मात्र का नाम व्यवहार है । अर्थात स्वचतुष्टय से अभेद होते हुए भी संज्ञा संख्यादि भेदों के कारण कथन मात्र से समझाने के लिये गुण गुणी भेद करने की प्रवृत्ति सद्भूत व्यवहार है ।) ७ सद्भूत व्यवहार कारण व प्रयोजन वस्तु के अपने वस्तु भूत भेदों का कथन करने के कारण तो : के यह सद्भूत है और भेद डालकर कहने के के कारण व्यवहार है । अत: 'सद्भूत व्यवहार' ऐसा नाम सार्थक ही है । यह तो इस नय का कारण है । तथा अभेद वस्तु की प्रतीति करना इसका प्रयोजन है, जैसे की "जो स्वभाव एक जीव का है वही सर्व जीवों का है" इस प्रकार का भेदोपचार एक जाती के द्रव्यो मे स्वभाविक अभेद सिद्ध करता है तथा विजाति अन्य द्रव्यो से उसका स्वभाविक भेद सिद्ध करता है । इस प्रकार स्व व पर द्रव्य की पहिचान करके पर द्रव्य से निवृत्ति और स्वद्रव्य मे प्रवृति की जानी सम्भव है । यही इस नय का प्रयोजन है । शुध्द व अशुध्द सद्भूत इसके दो भेद हो जाते हैं, क्योकि द्रव्य, शुद्ध व अशुध्द दो अवस्थाओ मे पाया जाता है । सामान्य द्रव्य मे अथवा शुद्ध द्रव्य में गुण-गुणी व पर्याय- पर्यायी ८ शुद्ध सद्भूत का भेद कथन करने वाला शुद्ध सद्भूत व्यवहार व्यवहार नय नय है । तहा गुण तो त्रिकाली सामान्य भावने के कारण शुद्धता व अशुद्धता से निरपेक्ष शुद्ध ही होता है जैसे ज्ञान गुण सामान्य । परन्तु पर्याय शुद्ध व अशुद्ध दोनों प्रकार की होती है । इन दोनों मे से यहां शुद्ध सद्भूत व्यवहार के द्वारा केवल शुद्ध पर्याय का ही ग्रहण किया जाता है । अशुद्ध पर्याय का ग्रहण करना अशुद्ध सद्भूत व्यवहार का काम है । शुद्ध पर्याय भी दो
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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