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________________ १६. व्यवहार नय ६६६ ८. शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय प्रकार की है-सामान्य व विशेष । प्रतिक्षण वर्ती षट् गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म अर्थ पर्याय तो सामान्य शुद्ध पर्याय है और क्षायिक भाव विशेष शुद्ध पर्याय है, जैसे केवल ज्ञान । सामान्य द्रव्य मे तो सामान्य गुण व गुणी का, अथवा सामान्य शुद्ध पर्याय व पर्यायी का अथवा विशेष शुद्ध पर्याय व पर्यायों का यह तीनों ही भेद देखे जाने सम्भव है, परन्तु शुद्ध द्रव्य मे अर्थात शुद्ध द्रव्य पर्याय मे केवल विशेष शुद्ध पर्याय व पर्यायी का ही भेद देखा जा सकता है। क्योकि शुद्ध द्रव्य पर्याय मे त्रिकाली सामान्य द्रव्य के अथवा सामान्य पर्याय के दर्शन असम्भव है । “जीव ज्ञानवान है या उसकी षट् गुण हानि वृद्धि रूप स्वाभाविक सामान्य पर्याय वाला है" ऐसा कहना द्रव्य सामान्य मे गुणगुणी व पर्याय-पर्यायी का भेद कथन है । “जीव केवल ज्ञान दर्शन ; वाला है" या वीतरागता वाला है "यह द्रव्य सामान्य मे शुद्ध गुण शुद्ध गुणी व शुद्ध पर्याय-शुद्ध पर्याय का भेद कथन है । "सिध्द-भगवान केवल ज्ञान केवल दर्शन वाले है या वीतरागता वाले है" यह शुध्द द्रव्य या शुद्ध द्रव्य पर्यायी मे शुद्ध गुण-शुद्ध गुणी व शुद्ध पर्याय-शुद्ध पर्यायी का भेद कथन है। ये सब ही शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय के उदाहरण है। इसे अनुपचरित सद्भूत भी कहते है क्योकि गुण सामान्य तो पर सयोग से रहित होने के कारण तथा क्षायिक भाव सयोग के अभाव पूर्वक होने के कारण अथवा स्वभाव के अनुरूप होने के कारण अनुपचारित कहे जाने युक्त है । . अब इन्ही की पुष्टि व अभ्यास के अर्थ कुछ आगम कथित उद्धरण देखिये। १. वृ. द्र. संोटी।६।१८ 'केवल ज्ञान दर्शनं प्रति शुद्ध सद्भूत शब्द वाच्योऽनुपचरिसद्भूत व्यवहारः।" ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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