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________________ १८ निश्चय नय ६३४ १०. अशुध्द निचय नय का लक्षण १४ व द्र स. टी. । १६ । ५३ "अशुद्ध निश्च येन योऽसौ रागादि रूपो भाव बन्धः कथ्यते सोऽपि शद्ध निश्चय नयेन पुद्गलबन्ध एव ।" अर्थ:-"अशुद्ध निश्चय नय से जो यह रागादि रूप भाव वन्ध कहा गया है वह शुद्ध निश्चय नय से पुद्रलवन्ध ही है। १५ व द्र स. । टी ।४५ ११९७ "यच्चाम्यन्तरे रागादि परिहार. स पुनर शुद्ध निश्चये नेति ।" अर्थ:-यह जो अन्तरग के रागादिक का परिहार करना भी कहा जाता है सो भी अशुद्ध निश्चय नय से ही है । भावार्थ होने वाली वस्तु का ही परिहार भी किया जा सकता है । जो बस्तु है ही नही उसका परिहार क्या करे । शुद्ध निश्चय की स्वभाव दृष्टि मे तो रागादि है ही नहीं अतः उनका त्याग भी उस दृष्टि मे ग्रहण नही किया जा सकता । त्याग करने के पश्चात् जो शुद्धक्षायिक पर्याय प्रगट होती है वह भले शुद्ध पर्याय ग्राहक शुद्ध निश्चय नय से जीव की कह दी, जाये । परन्तु राग का त्याग होने से पहिले वाली उसके परिहार की साधना तो जब तक अधूरी है तब तक शुद्ध निश्चय नय का विपय बन नही सकती । जितकी आशिक शुद्धता प्रगट हुई है वह एक देश शुद्ध निश्चय नय का विषय अवश्य है परन्तु जितनी रागादि की अशुद्धता परिहार करने के लिये अभी अवशेष है वह तो अशुद्ध निश्चय का ही विपय वन सकती है, क्योंकि वह अशुद्ध पर्याय है । परिहार अस्तित्व की अपेक्षा रखता है इस कारण अशुद्ध है ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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