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________________ १८. निश्चय नय ६३५ १६ वृ. न. च.।११४“ते चैव भाव रूपा जीवे भूता क्षयोपशमाच्च ते भवन्ति भाव प्राणा ज्ञातव्या । ११४ ।" अशुद्ध निश्चय नयेन ११. अशुद्ध निश्चय नय के कारण व प्रयोजन अर्थ - वे भावरूप है क्योकि जीव म उत्पन्न होते है और क्षयोपशम द्वारा होते है, इसलिये उन मति ज्ञानादि को जीव के भाव प्राण कहते है, ऐया कथन अशुद्ध निश्चय नय का जानना चाहिये । प १७ श्र १ । १९ । व् १३० "सोपाधिकविषयोऽशुद्ध निश्चयो, यथा मति ज्ञानादयो जीव इति ।" ( नय चक्र गद्य पु. २५) अर्थ = सोपाधिक भाव अशुद्ध निश्चय के विषय है, जैसे कि मति ज्ञानादिक को जीव कहना । क्योकि जीव के ११. ग्रशुद्ध निश्चय नय के कारण व प्रयोजन अश ुद्ध भावो को ग्रहण करता है इसलिये तो अशुद्ध है, और क्योकि जीव के अपने ही भावो के साथ उस की तन्मयता दर्शा रहा है इसलिये निश्चय नय है । दोनो बातो के मिलने से इसे अशुद्ध निश्चय नय का कहना ठीक ही है । यह तो इस नय का कारण है । अशुद्ध भावों का परिहार कराके शुद्ध भावो मे स्थिरता कराना इसका प्रयोजन है । शुद्ध निश्चय नय से रागादिक विकारी भाव, 1 कर्मो के बताये गये है, जिसे सुनकर यह भ्रम हो सकना सम्भव है कि यह क्रोधादि मेरे तो है ही नही, में तो वर्तमान में भी पूर्ण परब्रह्म स्वरूप शुद्ध ही हू । यदि ऐसा हुआ तो महान अनर्थ होगा, क्योंकि इस प्रकार कहते रहना और अपने अपराधो को स्वीकार न करके स्वच्छन्द का पोषण करते रहना, तो, स्व व पर दोनों के लिये
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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