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________________ १७ पर्यायार्थिक नय १. पर्यायार्थिक नय सामान्य का लक्षण दूसर प्रकार से भी कदाचित उपादान कारण कहा जा सकता है, और वह यह कि जिस पूर्व की पर्याय ने हट कर उस अगली पर्याय को द्रव्य मे प्रवेश करने की आज्ञा दी, वह पूर्व की पर्याय भी अपने से अगली पर्याय के लिए कारण कही जा सकती है, क्योकि 'वह व्यय न होती तो अगली पर्याय कैसे उत्पन्न होती' इस तर्क के द्वारा इस कि सिद्धि होती है। जैसे अन्धकार का विनाश न होता तो, यहा अन्धकार का विनाश भी प्रकाश होने मे कारण अवश्य है । इस प्रकार त्रिकाली द्रव्य, और पूर्व समय की एक पर्याय तो कारण कोटी मे आते हैं और एक वह पर्याय जो कि विचारणा या कथन का विषय बनी हुई है, कार्य कोटी मे आती है। जिस पर्यायार्थिक दृष्टि में केवल एक ही द्रव्य तथा केवल एक ही पर्याय की पृथक सत्ता का ग्रहण हो रहा है, उस दृष्टि मे अन्य द्रव्य कौन और पूर्व की पर्याय भी कौन ? दोनो ही का वहा तो अभाव है। फिर कारण किसे कहे ? क्या अभाव को ? सो तो सम्भव नही है, क्योकि अभाव का विचार भी क्या ? अकेला कार्य ही कार्य है । अतः इस दृष्टि मे कारन के बिना ही कार्य की उत्पत्ति होती है। यहा ऐसा तर्क उत्पन्न हो सकता है कि कारण के अभाव मे कार्य का भी अभाव हो जायेगा, तो वह दृष्टि तुरन्त पुकार उठती है कि ऐसा नही हो सकता, क्योकि जो बात वर्तमान विचारणा का विषय बनी हुई है, जो इस समय मुझे स्पष्ट दीख रही है उस का अभाव मै स्वीकार ही कर सकता । फिर प्रश्न होता है कि कोई न न कोई तो कारण होना ही चाहिये, तब उत्तर यही आता है कि जब न द्रव्य कारण है, और न पूर्व की अन्य पर्याय कारण है, तो परिशेष न्याय से वह एक क्षणवर्ती द्रव्य अकेला ही स्वयं कार्य रूप है और स्वय अपना कारण भी है। पर्यांयार्थिक दृष्टि के इस एकत्व भाव को कही क्षणिक उपादान भी कहने में आता है । तात्पर्य यह कि पर्यायार्थिक
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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