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________________ १७. पर्यायार्थिक नय १ पर्यायार्थिक नय सामान्य का लक्षण एक स्वतत्र द्रव्य था जो विनष्ट हो गया । मनुष्य एक स्वतत्र द्रव्य है जो वर्तमान मे हमारे सामने है, और देव एक स्वतत्र द्रव्य है जो आगे उत्पन्न होगा। इसी प्रकार गुण व गुणी अथवा विशेशण व विशेष्य भाव रूप द्वैत भी कैसे सम्भव है ? वह द्रव्य भाव या गुण मात्र ही तो है । गुण है वही द्रव्य है और द्रव्य है वही गुण है । अत दो नाम देने व्यर्थ है । यह गुण इस द्रव्य का है, ऐसा नहीं कह सकते । इसी प्रकार क्षेत्र में भी समझना । ____ लक्षण नं३-- अन्य पर्यायों को अत्यत निरस्त करके उत्पन्न होने वाली यह एकत्व दृष्टि जव द्वैत देखती ही नही तो कारण-कार्य अथवा कर्ता-कर्म आदि वाले द्वैत को यहा अवकाश ही कैसे हो सकता है ? अत. इस दृष्टि मे कोई भी कार्य बिना किसी कारण के स्वतः उत्पन्न होता है । उस को किसी अन्तरङ्ग या बाह्य कारण की अथवा कर्ता की अवश्यकता नही । अत. निमित्त या उपादान कारण इन दोनो का ही इस दृष्टि मे अभाव है। यह भाव स्वीकार करते हुए कुछ बाधा अवश्य होती है पर एकत्व दृष्टि में होता ऐसा ही है । उस की सिद्धि भी इस युक्ति पर से की जा सकती है। कार्य नाम पर्याय का है और कारण नाम द्रव्य, गुण व पर्याय तीनों का । 'यह न होता तो कार्य कैसे होता' इस प्रकार के तर्क द्वारा जिस की सत्ता दिखाई दे उसे ही कारण कहते है । द्रव्य रूप कारण दो होते है-एक उपादन दूसरा निमित्त । सयोग विशेष को प्राप्त दूसरा द्रव्य निमित्त कारण कहलाता है । उपादान कारण उसे कहते है जिस मे से कि कार्य या पर्याय प्रगट हो, अर्थात द्रव्य को उपादान कारण कहते हैं, क्योंकि पर्याय-द्रव्य मे ही प्रगट होती है, इससे बाहर नही । 'वह न हों तो पर्याय कहा प्रगट होगी' ऐसे तर्क द्वारा इस के कारण पने की सिद्धि हो जाती है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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