SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. वस्तु व ज्ञान सम्बन्ध १. अल्पज्ञता की बाधक पक्षपात व एकान्त +1 सहज दर्पण रूप से देखने का प्रयास नही करते, बल्कि इसे ब्लेक बोर्ड के रूप मे प्रयोग कर रहे है, जिस पर आप जिस बात का चाहें चित्रण करे और जिस बात का चाहे न करे, जिसे चाहे बना ले जिसे चाहें मिटा दें। यह तो कृत्रिम है । स्वाभाविक ज्ञान की स्वच्छता में तो ऐसा होना असम्भव है । अतः वहां विरोध व खेचातानी को अवकाश नही । वहा स्वीकार पडा है । बस यही है ज्ञान की सरलतां । , 1 यह याद रखना- कि यह सारा लम्बा प्रकरण केवल एक ज्ञान मात्र को दृष्टि मे रखकर कहा जा रहा है, चारित्र को नही । इसलिये इस प्रकरण मे यथायोग्य, रीति से स्वीकृति को ही अवकाश है, निषेध को नहीं, इसका यह भी तात्पर्य नही कि अनहोनी बे सिर पैर की बात को स्वीकार करने को कहा जा रहा हो, क्योकि जिसके हृदय मे पक्षपात नही और जिसने ज्ञान को सरल बना कर कहना प्रारम्भ किया हो, ऐसा कोई भी व्यक्ति बे सिर पैर की वात भला कहने ही क्यों लगा । हा शास्त्रार्थ व विरोधी संभाषणों तथा वाद विवाद के कुतर्कों मे अवश्य ऐसा होना सभव है । पर यहां तो वैसा वातावरण नही है और न ही होने देना चाहिये, यहां एक प्रश्न हो सकना संभव है कि आगम मे तो ज्ञान को हेयोपादेय के निर्णय करने वाला बताया गया है, और यहा उसको हेयोपादेय के विवेक रहित बताया जा रहा है । सो ठीक है भाई तू भी ठीक ही कहता है | आगम की बात सत्य है और यहा वाली बात भी सत्य है, यही तो बुद्धि का अभ्यास करना अभीष्ट है । इस प्रकार की विरोधी बाते सर्वत्र कथन क्रम में आयेंगी । उसका यथायोग्य अर्थ समझने का अभ्यास कर, निषेध व विरोध उत्पन्न करने का नही । देख मै समझाता हूँ । आत्मा तो ज्ञानस्वरूप है, इसका चारित्र भी ज्ञानस्वरूप है और श्रद्धा भी ज्ञानस्वरूप है । ज्ञान के अतिरिक्त चारित्र और श्रद्धा कोई भिन्न वस्तु नहीं है, सब एक-मेक है | चेतन 1
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy