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________________ ३ वस्तु व ज्ञान सम्बन्ध ३६ २. वस्तु अनेकांगी है के सब गुण चेतन है । ज्ञान का ही नाम उस समय चारित्र हो जाता है जवकि इसमे हेय को त्याग कर उपादेय मात्र को ग्रहण करने का प्रयत्न व झुकाव जागृत हो गया हो। इसी प्रकार ज्ञान का ही नाम श्रद्धा व रुचि हो जाता है जब-कि इसमे "तू ऐसा ही किसी प्रकार कर, यही जीवन का सार है, और सब तो निरर्थक है. । अरे तू जानने के पश्चात् भी क्यो इसको प्राप्त करने का उद्यम नहीं करताः इत्यादि इस प्रकार के भाव जाग्रत होते हुए प्रतिबिम्बित से हो गये हों। और ज्ञान का नाम ही ज्ञान है, जब कि यह सहज दर्पणवत् सब कुछ जो भी सामने आये उसी को निगल कर अपने अन्दर धरने के लिये तत्पर हो रहा है, चाहे वह विष्टा हों या अमृत । बता दोनों बातो मे अब विरोधं कहा रहा । इसी प्रकार सर्वत्र बुद्धि का प्रयोग करके यथायोग्य रीति से अर्थ लगाने का अभ्यास करना चाहिये, तभी आगम की गहनता को स्पर्श कर सकेगा अन्यथा नहीं। इसी का नाम है स्याद्वाद या दो विरोधीवत दीखने वाली बातों का समन्वयं या अनेकान्त ।। ... 1577 भाई वस्तु मे एक दो दस-पाच ही नही अनेको अर्थात् अनन्तों .: भाव पड़े है। उसमें से अनेको बाते परस्पर २. वस्तु अने विरोधी भी है। यद्यपि साधारणतः विचारने पर - काङ्गी है यह बात गले उतरती नही कि दो विरोधी बातें - एक ही स्थान पर या एक ही वस्तु मे रह सकती हों, पर वास्तव में है-ऐसा ही। वस्तु पढे तो पता चल जाये जैसे की पूर्व कथित दृष्टात मे बताया जा चुका है कि अग्नि में उष्णता व गीतलता, हिम मे शीतलता व "दाहकता, दोनों यथायोग्य रूप से एक स्थान पर पड़े है। एक ही स्थान पर रहते हुए भी उनमे कोई झगडा होने नहीं पाता, क्योंकि वह ऐसे विरोधी नही है। जैसे कि आप समझ रहे है। वह विरोध विचारणा द्वारा ही पकड़ा जाने योग्य है, स्पष्ट दीखने योग्य नही। जिस प्रकार की स्पर्शनेन्द्रिय-सबंधी
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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