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________________ ३ वस्तु व ज्ञान सम्बन्ध ३४ १. अल्पज्ञता की बाधक पक्षपात व एकान्त के पोषण के साथ साथ अन्य विरोधी मत का बड़ा तीव्र व कटुः निषेध दृष्टिगत होता हैं। फल निकला द्वेष व कटुता । यही तो है जीवन | का भारा प्रभो! यहा लड़ने की क्या बात है ? यदि शब्द की बजाय वस्तु को पढ़े तो दोनों बाते वहां पड़ी हैं। भले विरोधी सी लगती हों पर उनका वहा किसी न किसी रूप मे सद्भाव है अवश्य । कितना अच्छा होता कि उन सब बातों का सहज स्वीकार करके दोनों विरोधी बातों को अपने वक्तव्य मे यथास्थान अवकाश दिया होता और इस वर्तमान की निषेध करने की बात को दबा देता । ऐसा करता तो स्वयं तेरे लिये तेरी विद्वत्ता सार्थक हो गई होती। पर यह सब उस समय तक होना कठिन है, जब तक कि आत्मा का साक्षात न कर लिया जाय, या जब तक कि तत्सम्बन्धी सर्व बातों का चित्रण आपके हृदय पट पर परोक्ष रूप से न आ जाये । अतः यह विरोध ही बता रहा है कि ज्ञान अधूरा है । भले ही आप दोनों बातों को शब्दों मे स्वीकार करते हो परन्तु उन दोनों मे एक को अधिक खेंच कर बताने के तथा दूसरी को दबाने के प्रयत्न की भावना, ज्ञान की कठोरता को दर्शा रही है। ज्ञान की सरलता मे तो ऐसा नहीं होना चाहिये । क्योंकि जैसा कल बताया गया था ज्ञान का काम तो जानना है। उसके लिये कोई अच्छा बुरा नही होता, हेय उपादेय नही होता, ग्राह्य व त्याज्य नही होता जैसा कि अग्नि की उष्णता व शीतलता दोनों हो यथायोग्य रूप से ज्ञान के लिये ग्राह्य है, वैसे ही आत्मा का ज्ञान शरीरीपना व भौतिक शरीरीपना, आत्मा का वीतराग भाव व क्रोध दोनों ही यथायोग्य रीति से ज्ञान के लिये ग्राह्य है। भले ही चारित्र सम्बन्धी विचार करने मे इनमे से कोई ग्राह्य व कोई त्याज्य हो जाये, परन्तु ज्ञान मे तो ऐसा नहीं होता, क्योकि ज्ञान तो दर्पण है। जो भी जैसी और कैसी भी, तथा जिस रूप मे भी वस्तु सामने पड़ी है, वह ही और वैसे ही तथा उस रूप मे ही उस वस्तु का प्रति-, विम्ब उसमे तो सहज पड़ जाना चाहिये। यदि आप उसे रोकने का प्रयत्न करते है तो इसका अर्थ यह हुआ, कि आप अपने ज्ञान को
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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