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________________ १६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४७२ ३ द्रव्यार्थिक नय सामान्य । के कारण व प्रयोजन - और कार्य भवितव्य के आधीन भी है इत्यादि" । परन्तु इन को अभेद रूप से देखने में असमर्थ वास्तव मे तुझे इस बात का पता ही नही कि कार्य किस कारण से होता है । और इसीलिये बडे बडे विद्वान भी आज परस्पर मे इन कारणो ही की चर्चा में उलझ कर लड़ रहे है। उपादान से कार्य होता सुन कर निमित्तादि शेष चार कारणों का निषेध प्रतीत होने लगता है, निमित्त कारण से होता है सुनकर उपादान व पुरुषार्थ आदि का निषेध भासने लगता है, पुरुषार्थ से होता सुन कर नियति व काल लब्धि केवल कपोल कल्पना सी दीखने लगती है, और नियति से होता सुनकर पुरुषार्थ व निमित्त की आवश्यकता ही रहती प्रतीत नही होती। जैन जगत के सर्व अध्यात्मिक पत्र विद्वानों के लिये इसी विषय पर मानो युद्ध के शस्त्र बने हुए है। जिनके द्वारा वे एक दूसरे पर बरावर प्रहार करते रहने मे ही अपनी महत्ता समझते है। वर्षो चर्चा करते बीत गये परन्तु आज तक भी समाधान न हो सका । फिर तेरी तो बात ही क्या, तू तो ठहरा मन्द बुद्धि । इसी शान्ति पथ के अग स्वरूप सम्यकत्व, ज्ञान व चारित्र तीनों मे से कोई तो कहता है कि सम्यकत्व पहिले होता है, जब वह होता है तो ज्ञान चारित्र नही होता । कोई कहता है कि ज्ञान पहिले होता है । कोई कहता है कि चारित्र पहले धारो। कोई आगम ज्ञान के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ है, और कोई व्रत धारने व बाह्य के आचरण के पीछे । कोई बाह्य के आचरण को बिल्कुल बेकार बता रहा है, और कोई इसमे अपने जीवन का सार देख रहा है । इत्यादि अनेको वाते आज अध्यात्म मार्ग मे क्या तुझसे से छिपी है ? विचार तो सही कि यदि दृष्ट पदार्थो वत, यहा भी सव उपरोक्त वातो को परस्पर सम्मेल बैठाकर एक रस रूप ग्रहण कर लिया होता, तो लडाई को कहा अवकाश रह गया था । अदृष्ट विपयों का अभेद रूप से कैसे देखा जा सकता है, वही बात यह द्रव्याथिक नय
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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