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________________ १६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य बिना भी स्वयं अभेद का ग्रहण हो गया है । जब ऐसा स्वाभाविक रूप से हो ही जाता है तो इस द्रव्यार्थिक नय को कहने की आवश्यकता ही क्या है ? यह तो केवल वाक् गौरव मात्र रहा। और तो इसका मूल्य है नही । ४७१ ३ द्रव्यार्थिक नय सामान्य के कारण व प्रयोजन I 4 सो भाई । ऐसा नही है । यह वाक् गौरव मात्र नही है । तेरी शंका भी ठीक है । परन्तु तू शंका करते समय इतना अवश्य भूल गया है कि जिन दृष्टान्तो के आधार पर तूने यहा शका उठाई है वह उन पदार्थों सम्बन्धी है, जिन को तू पहिले से यर्थाथत जानता है । अर्थात् पहिले से उनका अभेद चित्रण तेरे ज्ञान पट पर खिचा हुआ है । परन्तु यहां तो किसी अदृष्ट पदार्थ को बताना अभीष्ट है, है, जो तू पहिले से नही जानता, जिसका यथार्थ चित्रण पहिले से तेरे ज्ञान पट पर नही है । उस चित्रण के अभाव मे अखण्ड द्रव्य को स्वतः कैसे समझ सकेगा ? जितना और जैसा वताया जायेगा वही तो समझेगा; उसके अतिरिक्त और कैसे समझेगा ? बताया जा रहा है खंड खंड करके, अत. खण्डों पर से अखण्ड एक रस रूप पिण्ड को कैसे समझेगा ? खण्ड ही तो समझेगा । और यदि ऐसा हुआ तो क्या कोई भी मत्ता भूत वस्तु तू समझ पायेगा ? क्या उस तेरी समझ के अनुरूप खड लोक मे तुझे कदापि देखने को मिलेगे ? और जब सा कुछ पृथक पृथक देखने को मिलेगा ही नही तो उस प्रकार का खडित ग्रहण क्या तेरे ज्ञान पर केवल भार मात्र न होगा ? उससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा ? जैसे कि आगम के उद्धरणों पर से पढ कर तथा ज्ञानी जीवो के मुख से सुन कर यह बाते शब्दों में तो तू जान रहा है, विद्वान लोग भी जान रहे हे कि, कार्य उपादान कारण से होता है, "कार्य निमित्त कारण से भी होता है, कार्य पुरुषार्थ के द्वारा कार्य नियति या काल लब्धि के द्वारा भी होता है, भी होता है,
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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