SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य ४७३ ३ द्रव्यार्थिक नय सामान्य के कारण व प्रयोजन बताता है । इसके बिना परस्पर बिरोधी बातों का समन्वय बैठना असम्भव है । यदि अभेद रूप से देखने का अभ्यास हुआ होता उपरोक्त कार्य कारण व्यवस्था मे न अकेले उपादान को देखता न अकेले निमित्त को न अकेले पुरुषार्थ को और न अकेली निर्यात को । पाचो का मिला हुआ एक रस रूप कोई अद्वितीय विजातीय कारण ही कार्य व्यवस्था में सार्थक है, जिस मे उन पांचो को एक ही समय ममान स्थान प्राप्त है, बिल्कुल जीरे के पानी मे पडे मसालो वत् । वास्तव में इन सर्व कारणो मे एक अनौखा सम्मेल है । निमित्त है तहा उपादान है और उपादान है तहा निमित्त । निमित्त के बिना उपादान नही और उपादान के बिना निमित्त नहीं । जहा पुरुषार्थ है वहां नियति अवश्य है । पुरुषार्थ के बिना नियति नही और नियति के बिना पुरुषार्थ नही। पाचो की खिचड़ी जहा बन जाये वह वास्त विक रहस्यार्थ का ग्रहण है जो वास्तव मे अवक्तव्य है । इस अवक्तव्य अभेद भाव की ओर सकेत करना ही द्रव्याथिक नय का प्रयोजन है। यदि यह अभेद द्रव्याथिक दृष्टि उत्पन्न हो गई होती, तो उपादान सुनकर अनुक्त भी निमित्त का ग्रहण और निमित्त सुनकर उपादान का ग्रहण, अथवा पुरुषार्थ सुनकर नियति का ग्रहण और नियति सुन कर पुरुषार्थ का ग्रहण ही जाना अनिवार्य था जैसा कि प्रकाश सुन कर उष्णता का ग्रहण हो जाना अनिवार्य है । उसको पूछने की आवश्यकता नही । ऐसी महिमा है इस द्रव्याथिक नय की। वस्तु जटिल है, और द्रव्याथिक नय का ग्रहण भी इस लिये जटिल पड़ता है। आज हम नयो का नाम तो जानते है। "यह बात अमुक नय से सत्य है और यह वात अमुक नय सत्य है" ऐसा बराबर कहते भी रहते है। परन्तु कहते हुये भी न स्वयं अपने मन का संशय दूर कर पाते है और न दूसरे के मन का कारण है कि अभेद ग्रहण के अभाव मे जो भी पढ या सुन पाते हैं,
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy