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________________ १५. शब्दादि तीन नय ३१५ ५. व्यभिचार का अर्थ हिन्दी वाले प्रयोगों में तो इन कारक भावों का ग्रहण 'ने' 'को' 'के द्वारा' 'के लिये' 'मे से' तथा 'में पर' इन शब्दों के द्वारा किया जाता है, और संस्कृत में उस उस शब्द के साथ उस उस विभक्ति विशेष का प्रयोग करके शब्द का रूप ही बदल दिया जाता है जैसे 'सुनार ने ' ऐसा कहने के लिये 'स्वर्णकार' यह शब्द कहा जाता है । इस कथन पर से शब्द के कारक का परिचय दिया गया । ५. 'वह' या 'वे' या कोई भी सज्ञा वाचक शब्द प्रथम पुरुष वाला है | 'तू' या 'तुम' ये दो शब्द मध्यम पुरुष वाले है । 'मैं' या 'हम' यह दो शब्द उत्तम पुरुष वाले है । उस उस पुरुष वाचक शब्द को कर्ता कारक रूप से ग्रहण करने पर, जिस जिस क्रिया (verb) का प्रयोग उसके साथ मे किया जाता है उस उस क्रिया का रूप भी तदनुसार ही ग्रहण करने मे आता है। जैसे हिन्दी मे तो 'वह जाता है' 'तुम जाते हो' और 'में जाता हूँ' इस प्रकार क्रियाओं का प्रयोग होता है, और संस्कृत मे 'सः गच्छामि' ' स्वम् गच्छति' 'अहम् गच्छामि' इस प्रकार क्रियाओं का प्रयोग होता । 'गच्छति' का अथ जाता है, 'गच्छसि' का अर्थ जाते हो और 'गच्छामि का अर्थ जाता हूँ, एसा होता है । क्रिया वाचक शब्दो के इन तीन रूपो को ही तीन पुरुष कहा जाता है । इस कथन पर से शब्द क पुरुष' का परिचय दिया गया । ६. किसी शब्द के साथ 'वि' 'स' 'उप' आदि उपसर्ग जोड़ देने पर सस्कृत व्याकरण के अनुसार उस शब्द के अनुसार उस शब्द के अर्थ मे कुछ फर्क पड़ जाता है । आत्मने पद से परस्मैपद का अर्थ और परस्मैपद से आत्मने पद का अर्थ हो जाता है जैसे 'तिष्ठति' के साथ 'स' उपसर्ग लगाने पर 'सतिष्ठति' नही कहा जा सकता, बल्कि 'सतिष्टते' कहना होगा । इस कथन पर से उपग्रह का परिचय दिया गया ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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