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________________ १५ शब्दादि तीन नय ३६६ ५ व्यभिचार का अर्थ व्याकरण की अपेक्षा किसी वाक्य मे जिस स्थान पर जो लिग व सख्या आदि प्राप्त हो अर्थात जिस स्थान पर जिस लिग आदि वाचक शब्द का प्रयोग करना युक्त हो, उस स्थान पर उसका प्रयोग न करके किसी अन्य ही लिग आदि वाचक शब्दो का प्रयोग करना शब्द व्यभिचार कहलाता है-जैसे ‘अवगमो विद्या' अर्थात ज्ञान विद्या है । यहा पर अवगम' शब्द पुल्लिगी और 'विद्या' शब्द स्त्रीलिगी है । वास्तव में स्त्री लिगी विद्या शब्द का लक्ष्य या विशेष्य भी स्त्री लिगी ही ग्रहण करना चाहिये था, अथवा पुल्लिगी विशेष्य का विशेषण भी पुल्लिगी ही ग्रहण करना चाहिये था, परन्तु ऐसा न करके पुल्लिगी विशेष्य का विशेषण यहा स्त्री लिंगी ग्रहण किया गया है। यही लिंग व्यभिचार है । 'सरस्वती विद्या है' इस प्रयोग मे विशेष्य व विशेषण रूप सरस्वती व विद्या दोनों शब्द समान स्त्री लिगी है अतः यह प्रयोग निर्दोष है। इसी प्रकार सख्या, काल, कारक, पुरुष, व उपग्रह मे भी समझना। अन्य लिग के स्थान पर अन्य लिग का प्रयोग लिग व्यभिचार है, अन्य सख्या या वचन के स्थान पर अन्य सख्या या वचन का आयोग सख्या व्यभिचार है, अन्य काल वाचक के स्थान पर अन्य काल वाचक शब्द का प्रयोगकाल व्यभिचार है, अन्य कारक के स्थान पर अन्यकारक काप्रयोग कारक व्यभिचार है, अन्य पुरुष के स्थान पर अन्य पुरुष का प्रयोग पुरुष व्यभिचार है । तथा अन्य उपग्रह के साथ पर अन्य उपग्रह का कथन उपग्रह व्यभिचार है। यहां इन व्यञ्जन नयो के प्रकरण मे सस्कृत व्याकरण की अपेक्षा विचार किया जाता है, हिन्दी व्याकरण की अपेक्षा नही, क्योकि हिन्दी व्याकरण तो उसका अपभ्रंश रूप है अतः शुद्ध नही है। व्यभिचार का यह विषय व्याकरण से सम्बन्ध रखता है, जिसका वस्तार करना इस पुस्तक का विषय नही । अतः सकेत मात्र
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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