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________________ १२. नैगम नय १. नैगम नय सामान्य ( ध. ।१२ ३०३।१ ) ( क. पा. 1१1१८३।२२१1१ ) इन दोनों स्थानो पर भी उपरोक्त बात का पोषण किया गया है | ) २४५ अर्थः- जो कुछ भी है वह संग्रह व व्यवहार अर्थात अभेद व भेद ऐसे दो पने को उल्लघन करके नहीं वर्तता । असंग्रह व व्यवहार इन दोनो नयो की परस्पर विभिन्नता को उभय रूप से अर्थात अभेद करके विषय करने वाला ! नैगम नय है | अभिप्राय यह है कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, वर्तमान, भविष्यत, मेय व उन्मेय, आदि विकल्पों को आश्रय करके रहने वाले उपचार से उन्नत होने वाला है, वह नैगम नय कहा जाता है । २ ध.।१२।२६५-२६६।० २-३ " नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावर्णीय (आदि अष्ट कर्मों) की वेदना जीव के होती है |२| कथञ्चित वह नो जीव ( पुग्दल कर्म ) कें होती है | ३ |" (अर्थ:- यहाँ जीव व कर्मों मे निमित्त नैमित्तिक भाव देखकर कर्मो की वेदना या कर्मों का अनुभव जीव को होना स्वीकार किया गया है । वास्तव मे तो उनके निमित्त से होने वाली ज्ञान मे हानि वृद्धि की वेदना ही जीव को होती है, कर्मों की नही । यह नैगम नय की स्थूलता है कि निमित्त की वेदना उपादान में बतादी गई । । ) क० पा०।१।ह२५७।२६७८ ''नगम नय की अपेक्षा कारण मे कार्य का सद्भाव स्वीकार किया जाता है । इस प्रकार नैगम नय के छहों सामान्य लक्षणो सम्बन्धी आगंम कथित उद्धरण बता दिये गये । लक्षण व उदाहरण पहिले
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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