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________________ १२. नैगम नय २४४ १ नैगम नय सामान्य अर्थ:- जो भी है वह दो पने को उल्लघन करके नही वर्तता ऐसा नैगम नय कहता है । अर्थात जो संग्रह व व्यवहार दोनो को छोड़कर नही रहता वह नैगम नय है । संग्रह व असग्रह अर्थात भेद व भेद स्वरूप द्रव्यार्थिक है वही नैगम है । नैगम संग्रह और व्यवहार यह तीनो ही नय निजनिज विषय मे नित्यता बताने वाले है क्योकि उन उनके अपने अपने विषय की सीमा मे सामान्य व विशेष काल के ग्रहण का अभाव होने के कारण वहा पर्याय का भी ग्रहण हो नही पाता । ) वर्ततेति संग्रह व्यवहारयो परस्पर विभिन्नोभय विषयावलम्वनो नैगमनयः ।" ३ ध. ।ε।१७१।४ “यर्दास्त न तद्वयमतिल्लघ्य εघ ।१२।३०३।१ (क पा | १|१८३ । २२१1१ ) ( अर्थ - जो कुछ भी है वह संग्रह व व्यवहार अर्थात् अभेद व भेद इन दोनो को उल्लघन करके नही वर्तता । संग्रह व्यवहार इन दोनो की परस्पर विभिन्नता को उभय रूप से अर्थात अभेद करके विषय करने वाली नैगम नय है ।) ५ लक्षण नं० ५ ( कर्ता कर्मादि भेद प्रदर्शक ) १।९।१७१।४ " यदस्ति न तद्वयमतिलध्य वर्ततेति सग्रह व्यवहायो परस्पर विभिन्नोभय विषयावलम्बनो नैगम नय. । शब्द शील, कर्म कार्यकरण, आधाराधेय, भूतभविष्यतवर्तमान, मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोप्रचार प्रभव इति यावत्। 11
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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