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________________ ११ शास्त्रीय नय सामान्य २२५ २२५ ४. सप्त नय परिचय, सामान्य परन्तु' शब्द नय उन सर्व शब्दों मे से समान लिंग व संख्या आदि के ही शब्दों को एकार्थ वाची स्वीकार करता है, और वाक्य मे उनका ही एक प्रयोग करता हुआ वाक्य में से लिग संख्या आदि के व्यभिचार को दूर करता है । जैसे 'दार' आदि ५ पुलिगी शब्द, 'भार्या, आदि ५ स्त्री लिगी शब्द और 'कलत्र आदि ५ नपुसक लिंगी शब्द इन १५ शब्दों का ऋजुसूत्र की दृष्टि में एक ही वाच्य अर्थ है परन्तु शब्द नय की दृष्टि में 'दार आदि ५ पुलिंगी शब्दो का अन्य अर्थ है, 'भार्या आदि ५ स्त्री लिंगी शब्दो का अन्य अर्थ है तथा 'कलत्र आदि पाच नपुसक लिगी शब्दों का अन्य ही अर्थ है, क्योंकि इनमे लिंग भेद से भेद पाया जाता है ।' यद्यपि शब्द नय एकार्थ वाची शब्दों को स्वीकार करता है, परन्तु समान लिंगादि वाले ही शब्दों को न कि ऋजु सूत्र वत्' भिन्न लिंगादि वालों को भी ।। समभिरूढ़ उससे भी आगे बढ जाता है । उसकी दृष्टि मे एकार्थ वाची शब्द हो ही नहीं सकते । भले ही 'दार आदि पांच शब्दों का एक ही लिग हो परन्तु पद भेद से उनमे भेद पाया जाता है। इसलिये समान लिगी भी उन पांच पाच शब्दों का पृथक पृथक वाच्य अर्थ है । अर्थात यह नय १५ शब्दों के १५ अर्थ मानता है। परन्तु इतनी बात अवश्य है कि जो भी शब्द वह अपने अर्थ के लिये प्रयुक्त करता है उसे सर्वथा रूप से करता है, अर्थात उस पदार्थ की किसी समय कैसी भी अवस्था या पर्याय क्यों न हो रही हो अथवा व पदार्थ कुछ भी कार्य व्यों न कर रहा हो, परन्तु वह सर्वदा उन १५ शब्दों मे से यया योग्य किसी एक शब्द का ही वाच्य बनाया जाता रहेगा । जैसेकि पूजा करता हो या राज्य करता हो या युद्ध करता हो, सभी अवस्थाओं मे 'इन्द्र' इन्द्र ही है । एवभूत नय इससे भी आगे निकलकर सूक्ष्म से सूक्ष्म भी दोष को दूर करता हुआ उस एक पदार्थ के लिये भिन्न भिन्न समयों मे भिन्न
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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