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________________ ११. शारतीय नय सामान्य २२६ ५. सात नयो में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता भिन्न शब्दो का प्रयोग करता है । उसकी दृष्टि मे पूजा का कार्य करते समय इन्द्र पुजारी हो सकता है पर इन्द्र नही, और आज्ञादि चलाते समय वही इन्द्र हो सकता है परन्तु पुजारी व शक नही, युद्ध करते समय वह शक्र ही है, इन्द्र व पुजारी नही इत्यादि । में उत्तरोत्तर इन नयो में पहिले पहिले नय अधिक विषय वाले है और आगे ५. सात नयो आगे के नय परिमित विषय वाले है। सग्रह नय सत् मात्र को जानता है और नैगम नय सकल्प मात्र के सूक्ष्मता द्वारा सत् व असत् दोनो को ग्रहण करता है । सत् में भी ग्रह न केवल सामान्य अश को ग्रहण करता है और नैगम नय सामान्य व विशेप दोनो को जानता है, इसलिये सग्रह नय की अपेक्षा नैगम नय का अधिक विषय है । व्यवहार नय सग्रह से जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है, ओर सग्रह समस्त सामान्य पदार्थ को जानता है, इसलिये सग्रह नय का विषय व्यवहार नय से अधिक है । व्यवहार नय तीनो कालो के पदार्थो को अथवा परस्पर सम्बद्ध सर्व क्षेत्राशो व भावाशो को जानता है और ऋजु सूत्र से केवल वर्तमान पदार्थ का अथवा किसी एक अविभागी क्षेत्र व भाव का ही ज्ञान होता है, अतएव व्यवहार का विषय ऋजु सूत्र से अधिक है । शब्द नय काल, कारक आदि के भेद से वर्तमानव्यञ्जन पर्याय को जानता है, ऋजु सूत्र मे काल आदिका कोई भेद नही है, इसलिये शब्द नय से ऋजु सूत्र का विषय अधिक है । समभिरूढ़ नय इन्द्र शक्र आदि पर्यायवाची शब्दो को भी व्युत्पत्ति की अपेक्षा भिन्न रूप से जानता है, परन्तु शब्द नय मे यह सूक्ष्मता नही रहती अर्थात वह सव पर्यायवाची शब्दो को सर्वथा एकार्थ वाचक स्वीकार करता है अत. समभिरूढ से शब्द नय का विषय अधिक है । समभिरूढ जाने हुए - पदार्थों मे तत्क्षणवर्ती क्रिया के भेद से वस्तु के नाम मे भेट मानना एवंभूत है. जैसे समभिरूढ की अपेक्षा पुरन्दर और शचीपति
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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