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________________ ६. नय की स्थापना १७६ ४ वचन कैसा होना, चाहिये सम्बन्धी विचार करते हुए, उसे वस्तु में या प्रमाण ज्ञान में मुख्य बनाये हूए अंग के साथ साथ, अन्य और भी अवश्य ही दिखाई दे रहे हैं । अव तो प्रश्न यह है कि वचन नय को सापेक्ष कैसे बनाया जाये ? आगम मे पढ़ा है कि सापेक्ष नय ही सम्यक् है, निर्पेक्ष नय मिथ्या है, इसका क्या तात्पर्य ? वचन को भी सापेक्ष बनाया जा सकता । सापेक्षता दो प्रकार की है - प्रमाण के प्रति व अन्य नय के प्रति । वचन में एक समय मे एक ही अग प्रमुखत कहा जा सकता है, सर्व अंगों का युगपत कहा जाना सम्भव नही । फिर भी इसको प्रमाण सापेक्ष वनाया अवश्य जा सकता है । सो किस तरह वह सुनिये । इस प्रकार, कि वस्तु के किसी अग विशेष का प्रवचन प्रारंभ करने से पहिले, उसकी भुमिका बना देनी चाहिये । जिसमे उस वस्तु विषयक सम्पूर्ण अगों का संकेत मात्र देकर सक्षिप परिचय श्रोता को दे दिया जा, "इस प्रकरण के अन्तरगत स्थूलत. यह यह विषय आयेगे, सो इनका कथन लगभग एक महीने मे पूरा कर पाऊंगा, अतः आपका कर्त्तव्य है कि विषय को एक महीने तक वरावर सुनकर एक महीने पश्चात् ही उस सम्पूर्ण विषय के सम्बन्ध मे अपना कुछ निर्णय स्थापित करना, अधूरा सुनकर नही, और न ही इसे अधूरा सुनकर छोड देना । क्योकि ऐसा करने से आपका भ्रम वश अहित होने की सम्भावना है इत्यादि । " तथा वक्तव्य के बीच वीच मे भी यथा अवसर ऐसा संकेत देते रहना चाहिये, कि “जितना आप अब तक सुन पाये है, यह पूरा नही है । इतने मात्र पर सतोष पाने का प्रयत्न न करना । इसके अतिरिक्त और भी कुछ है । सारं का सारा सुन कर ही कुछ निर्धारित करना, उससे पहिले नही ।" इस प्रकार आपका बोला गया तद्विषयक 1 1 हर वचन प्रमाण के प्रति बराबर सकेत करते रहने के कारण, प्रमाण सापेक्ष बन जायेगा, जो आप व श्रोता दोनों के लिये हितकारी होगा ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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